मित्रता के भाव के लिए बुद्ध ने ‘मेत्ता’ शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने हमेशा अपने शिष्यों से कहा कि वे सभी जीवधारियों के प्रति मेत्ता का भाव रखें। बुद्ध को मैत्रेय भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है मित्र, न कि गुरु या पैगंबर। मित्रता के भाव में अहिंसा और प्रेम भी शामिल है। इसमें करुणा का भी गहरा स्पर्श है। हम अपने मित्रों की कभी हानि करना नहीं चाहते, न उनका अपमान करते हैं। लेन-देन रहा भी तो वह गौण होता है। यानी मित्रता का संबंध मानवीय संबंधों में सबसे पवित्र होता है।

लेकिन कुदरत के प्रति हमारा रवैया इस्तेमालवादी है। हम यही मानते हैं कि प्रकृति हमसे अलग कोई वस्तु है और हम इसके स्वामी या मालिक हैं। हम खुद को प्रकृति के जिम्मेदार प्रबंधक या खिदमतगार की तरह नहीं देखते। अगर हम ऐसा कर पाते तो प्रकृति के प्रति हमारा रुख जिम्मेदारीपूर्ण होता। हम उसकी फिक्र करते और उसके मालिक बन कर उसका शोषण नहीं करते। धरती पर बनते इस मानव-केंद्रित संबंध ने बहुत अधिक नुकसान किया है। बार-बार आने वाली प्राकृतिक विपदाएं और संकट इस बात का सबूत हैं। इंसान कुदरत का हिस्सा है, उतना ही जितने कि बाकी पेड़-पौधे, जीव-जंतु। जैसे ही हम खुद को सृष्टि के केंद्र में देखते हैं, हम खुद को एक बेहतर, ज्यादा सम्मानजनक स्थिति में रख लेते हैं और वहीं से अपने स्व-निर्मित सिंहासन पर बैठ कर हम बची हुई दुनिया का अवलोकन करते हैं। उसके उपयोग और अधिक से अधिक शोषण के तरीकों पर विचार करते हैं।

यह सच है कि मनुष्य के पास कुछ खास गुण हैं जो प्रकृति में अन्यत्र देखने को नहीं मिलते। उसकी सोचने और खुद को व्यक्त करने की क्षमता उन गुणों में शामिल है। पर यह नहीं भूलना चाहिए कि धरती, आसमान और जल में रहने वाले कई जीव-जंतुओं में ऐसे अनेक गुण हैं जिनकी हम कहीं से भी बराबरी नहीं कर सकते। हर जीव-जंतु अपने-अपने तरीके से अस्तित्व की समग्रता में अपना योगदान कर रहा है। तो क्या हम सबके प्रति मेत्ता के भाव से रह सकते हैं? अगर नहीं, तो क्यों?

समूची धरती के आधार के अंतर्संबंध को बुद्ध ने एक वृक्ष के नीचे बैठ कर उसका अवलोकन करके ही सीखा था। उन्होंने देखा कि किस तरह हर वस्तु अपने अस्तित्व के लिए किसी और पर निर्भर करती है। फल आता है फूल से, फूल शाखाओं से, शाखाएं और पत्तियां तने पर उगती हैं, तना मिट्टी से जन्मता है और मिट्टी को पोषण देती है बारिश। बरसात बादलों से आती है और समुद्र बादलों को बनाता है। समुद्र नदियों से खुराक लेता है और नदियों को धरती थामे हुए है। धरती को समुद्र जीवन देता है और धरती समुद्र को। एक अद्भुत गणितीय व्यवस्था के तहत समूचा अस्तित्व चल रहा है। सभी एक दूसरे का हाथ थामे हुए हैं। हम इसी व्यवस्था का एक हिस्सा हैं। अगर यह व्यवस्था दिख जाए, प्रत्यक्ष अवलोकन के माध्यम से, न कि बौद्धिक विश्लेषण के द्वारा तो एक साथ अपनी क्षुद्रता और धरती की विराटता का अनुभव होता है। यही एक ऐसी अवस्था है जिसमें प्रकृति के प्रति एक स्नेहपूर्ण मित्रता का भाव जन्म लेता है, जो सिर्फ एक भावुक और रोमांटिक कल्पना मात्र नहीं, बल्कि गहरी समझ पर आधारित होता है। यह संबंध वैज्ञानिक भी है, कलात्मक और काव्यात्मक भी।

फिलहाल हमने प्रकृति के साथ एक तरह का स्वामी-सेवक का सामंतवादी संबंध बनाया हुआ है। जबकि सम्मान पर आधारित संबंध की संभावना तलाशना अब बहुत जरूरी लगता है। जैसे ही हम जीवन की उस ऊर्जा को चिह्नित कर लेते हैं जो समान रूप से छोटे से छोटे जीव से लेकर समूची सृष्टि और हरेक इंसान की रगों में प्रवाहित हो रही है, अचानक हमारे आपसी संबंधों में सम्मान, प्रेम, उदारता, करुणा और सकारात्मकता का आगमन होता है और फिर हम प्रकृति के साथ मिल कर अपने सह-अस्तित्व का जश्न मनाने लगते हैं। लूट-खसोट करने की हमारी प्रवृत्ति पर बगैर किसी प्रयास के अंकुश लग जाता है। प्रकृति के प्रति ‘मेत्ता’ का भाव ही एक बेहतर, सौम्य और शालीन सामाजिक जीवन का आधार बन सकती है।

वैज्ञानिक विषयों के मशहूर लेखक जेनीन बेनस ने मकड़ी के जालों और शंखों को बहुत बारीकी से देखा था और उनके बारे में उन्होंने लिखा है- ‘जैसे प्रकृति अपनी प्रौद्योगिकी और उपकरणों का अध्ययन करती है, वैसे ही हम इंसान क्यों नहीं करते? एक बीज में भी कितनी ऊर्जा होती है। एक छोटे-से बीज से अंकुर फूटता है, उससे पौधा तैयार होता है, पौधे से वृक्ष और वृक्ष एक सेब के पेड़ में बदल जाता है। हर सेव के फल से निकलने वाले बीज कई वर्षों तक और कई पेड़ों को जन्म दे सकते हैं। पेड़ों की पत्तियां धरती पर गिरती हैं, सड़ती हैं और खाद बन जाती हैं; यही खाद पेड़ों को पोषण देती है। हर ओर प्राचुर्य है, प्रकृति में कोई अभाव नहीं होता।’ प्रकृति के साथ हमारे टूटते हुए संबंधों को इसी तरह से देख कर फिर से उसमें एक नया जीवन देखने की आवश्यकता है।