रीना स्वामी
यह सदी है विज्ञान की और बहुत सारे बदलते नए मूल्यों के बीच मानव की बुद्धि के विकास की भी है। हम जिधर भी नजर दौड़ाएं, हर चीज मनुष्य के विकास की कहानी कह रही है। लंबी-चौड़ी सड़कें, गगनचुंबी इमारतें, माल के रूप में मशहूर चमकते व्यावसायिक परिसर, सरपट दौड़ती आधुनिक गाड़ियां, बुलेट ट्रेन की तैयारी, पलों में गणना करता सुपर कंप्यूटर आदि।
मनुष्य यहीं नहीं रुका है। ‘इंटरनेट आफ थिंग्स’, ‘रोबोटिक्स’, कृत्रिम मेधा यानी ‘आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस’ जैसी खोज ने तो मनुष्य को देवतुल्य ही बना दिया है। आज मनुष्य अपनी इन उपलब्धियों पर गर्व कर सकता है और अपनी पीठ थपथपा सकता है। वनमानुष की धारणा से आगे बढ़ते हुए आधुनिक मनुष्य बनने की यह यात्रा बेहद कठिन, दुष्कर और श्रमसाध्य रही है। इस लिहाज से देखें तो हम एक बेहतरीन और सुंदर दौर में जी रहे हैं।
यों भी मनुष्य को ईश्वर की सबसे सुंदरतम कृति कहा जाता है। मनुष्य ने अपने विवेक, बुद्धि और श्रम से जीवन को बेहद सरल, सुखद और सुविधाजनक बना लिया है। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। इसमें चिंताजनक यह है कि जीवन की यह सरलता हमें धीरे-धीरे स्थायी दुखों और कष्टों की ओर ले जा रही है। हरे-भरे वृक्षों की जगह धुआं उगलती फैक्ट्रियां मनुष्य का दम घोंट रही हैं।
धरती के स्वाभिमान के प्रतीक ऊंचे-ऊंचे पर्वत अब खदानों में परिवर्तित हो रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे धरती का सीना छलनी किया जा रहा है। कलकल की मधुर नाद करती नदियां कभी दिल में उतर जाती थीं। अब वे नालों में तब्दील हो रही हैं। कभी जीवनदायिनी रही नदियां अब बीमारियां और कई बार इसके जरिए मौत दे रही हैं। अधिक पैदावार के लोभ में प्रयुक्त कीटनाशक मनुष्य के शरीर में कैंसर का बीज बो रहे हैं।
इंटरनेट, भूमंडलीकरण और जनसंचार के साधनों ने स्थान और दूरी की खाई को तो पाट दिया है, लेकिन रिश्तों की मिठास को फीका कर दिया है। आज एक ही घर कई टापुओं में विभक्त हो गया है। घर के सभी सदस्य एक ही कमरे में बैठकर भी अलग-अलग मोबाइल में झांक रहे होते हैं। सब अपने में गुम। किसी को किसी की परवाह नहीं।
आज के युवा को रिश्तों में प्यार, समझ और परवाह से ज्यादा चिंता इस बात की होती है कि सोशल मीडिया पर उसकी किसी पोस्ट को कितने लाइक, टिप्पणियां मिलीं या उसके जरिए उसकी मित्र सूची में कितना इजाफा हुआ। ऐसा लगता है कि एक ही महाद्वीप में रहने वाले लोग विभिन्न देशों में विभक्त हो गए हैं, प्रत्येक देश थल और जलडमरुओं के माध्यम से अलग हो गए हैं।
बाजारवाद और उपभोक्तावादी संस्कृति ने मनुष्य को स्वार्थी, आत्मकेंद्रित और संवेदनहीन बना दिया है। आज मनुष्य अंतहीन इच्छाओं के मकड़जाल में फंस गया है। एक कविता की पंक्तियां याद आती हैं- ‘कुकुरमुत्तों की तरह उग आई बेहिसाब इच्छाएं/ बढ़ती ही जाती हैं चिनार के दरख्त से ऊंची और ऊंची।’
संवेदनहीनता का आलम तो यह है कि दुर्घटना में पीड़ित व्यक्ति की तुरंत मदद करने के बजाय उसकी पीड़ा और कराह की तस्वीरें उतारी जाती हैं और वीडियो बनाए जाते हैं या फिर अनदेखा करके निकल लिया जाता है। शायद इसीलिए मुक्तिबोध ने एक जगह लिखा है- ‘अब तक क्या जिया?/ जीवन क्या जिया…/ बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गए/ करुणा के दृश्यों से हाय! मुहं मोड़ गए/ बन गए पत्थर।’ आज मनुष्य की स्वार्थलोलुपता ने इंसानियत को किनारे धकेल दिया है।
जैविक, रासायनिक और आणविक हथियारों के विकास ने वैश्विक शांति को ही खतरे में डाल दिया है। मौजूदा दौर में रूस-यूक्रेन युद्ध इसका जीवंत प्रमाण है। दो देशों का यह युद्ध कब विश्वयुद्ध में बदल जाए, कहा नहीं जा सकता। इस युद्ध ने हजारों लोगों को शरणार्थी बनने पर मजबूर कर दिया है। युद्ध के परिणाम सदैव विध्वंसकारी होते हैं। इसमें किसी भी पक्ष की पूर्ण विजय असंभव है।
कहा जाता है कि महाभारत का युद्ध न्याय के लिए ही लड़ा गया था, लेकिन पांडव विजयी होकर भी पराजित ही रहे। इसी संदर्भ में धर्मवीर भारती ने लिखा है- ‘टुकड़े-टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादा/ उसको दोनों ही पक्षों ने तोड़ा है। पांडव ने कुछ कम कौरव ने कुछ ज्यादा… जो कुछ सुंदर था, शुभ था, कोमल था वह ढह गया/ द्वापर का युग बीत गया।’
मनुष्य विकास की जिस राह पर निकल पड़ा है, उसे आवश्यकता है चिंतन, मनन और ठहराव की। इंसानी समाज को थोड़ा ठहर कर एक बार फिर से सोचना होगा कि विकास की कौन-सी कीमत वह अदा कर रहा है। कहीं वह मनुष्य होने की पहचान तो नहीं खो रहा। विकास जरूरी है, पर सत्य यह भी है की विकास की यह प्रक्रिया भले ही अनवरत चले, लेकिन सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया की संस्कृति सदैव सुरक्षित रहे। यह याद रखना अगर अभी जरूरी नहीं समझा गया तो बाद में याद करना पड़ेगा कि प्रकृति और संवेदनाएं जब तक वास्तविक रूप में मनुष्य के पास हैं, तभी तक वह आगे बेहतर मनुष्य बनता रहेगा।