जिन्हें जल-संकट का गहरा भान है, वे गहराई से जल के बचत की बात भी सोचने लगे हैं। मेरे एक मित्र प्यास के हिसाब से ही अपना गिलास भरते या भरवाते हैं। उनका कहना है कि हमें गरमी में भी हर वक्त तो प्यास लगी नहीं होती है! मान लीजिए कि घर से आप थोड़ी देर पहले ही पानी पीकर चले हैं और थोड़ी देर बाद किसी पड़ोसी के यहां पहुंचे हैं या पास में किसी से मिलने, तो आपसे पानी के लिए पूछा जाएगा या खुद वह आपके सामने कुछ पलों बाद रख दिया जाएगा। कई बार हम उस पानी के ‘सम्मान’ में प्यास न लगी होने के बावजूद उसे उठा लेते हैं और दो-चार घूंट भर कर बाकी छोड़ देते हैं। वह जूठा पानी फेंक दिया जाता है। अगर प्यास नहीं लगी है तो हम जरा ‘जोर’ से मना कर सकते हैं कि ‘नहीं अभी तो प्यास ही नहीं है’ या फिर अगर कुछ प्यास है तो कह सकते हैं- ‘भाई, आधा गिलास ही दीजिएगा।’

मेरे मित्र यह भी बताते हैं कि आधा गिलास वाली बात सुन कर कुछ लोग चौंकते हैं, हंसने तक लगते हैं। लेकिन कुछ उनकी ओर प्रशंसा भाव के साथ देखते हैं। यह प्रशंसा के लायक है भी। न जाने कितना पानी, असावधानी के कारण या ‘जाने-अनजाने’ हम बर्बाद करते हैं। कई बार लोग नल के सामने जब मुंह धो रहे होते हैं, तो मुंह पर पानी के छींटे देते हुए नल को खुला ही रहने देते हैं और जब तक दूसरे छींटे के लिए हथेली जल भरने को फिर नीचे आती हैं, पानी बहता ही रहता है नल से। यह भी एक सामान्य-सी प्रवृत्ति है कि बहुत-से लोग होटल या गेस्ट हाउस के पानी को ‘अपना’ नहीं मानते और अगर वह बर्बाद हो रहा होता है, तो उसकी परवाह नहीं करते। ‘आधा गिलास पानी’ वाले हमारे मित्र, जल-संकट की चर्चा के समय यह आग्रह भी करते हैं कि पानी कहीं का हो, उसे ‘अपना’ मान कर चलना ही ठीक है। इससे भी होगी जल की बचत। वह नदी का हो, नहर-झील-सरोवर का हो, कहीं के नल, फव्वारे, पार्क, रास्ते का हो, वह ‘अपना’ है। इतना मानते ही हम कहीं किसी पाइप के फट जाने पर उससे बहते पानी को देख कर आगे नहीं बढ़ जाएंगे, किसी संबंधित व्यक्ति को इसकी सूचना देंगे। कहीं किसी ने नल खुला छोड़ दिया है, तो उसे बंद करने की बात सोचेंगे। क्या यह सच नहीं है कि अगर नदियों के जल को सभी ने अपना माना होता, तो वह जल इतना ज्यादा प्रदूषित न हुआ होता। हम अब भी जल-संकट को दैनिक सामजिक आचार-व्यवहार में उतना गंभीर नहीं मान रहे हैं, जितना कि वह सचमुच हो चुका है। करोड़ों देशवासी जल-संकट से बुरी तरह जूझ रहे हैं गरमी में यह संकट और बढ जाता है।

यह संकट इतना गहरा है कि अब पर्व-त्योहारों पर भी पानी की बचत की बात सोचनी पड़ेगी। पर्व-त्योहारों पर, होली-दिवाली पर, पानी के मामले में भी, हमारे हाथ कुछ अधिक खुल जाते हैं। कुएं पहले जैसे रहे नहीं, सरोवरों पर भी संकट बना हुआ है। ‘आधा गिलास पानी’ वाली बात भी बहुतों को भले ही एक अतिरंजित कोशिश लगे, पर उसके प्रतीकार्थ को तो कोई भी कम करके नहीं आंकना चाहेगा। जब भी मैं गरमी में ऐसी तसवीरें अखबारों में देखता हूं, जिनमें स्त्रियां मीलों दूर से घड़ों में पानी लाती हुई दिखती हैं, या किसी बस्ती में स्त्री-पुरुष, किसी नल या टैंकर के सामने लंबी कतारों में नजर आते हैं, तो पीड़ा होती है। तब लगता है कि जल की एक-एक बूंद कितनी कीमती है।हां, यह जरूर सुखद है कि इस बीच वर्षा जल संचय की विधि कई जगहों में अपनाई गई है। बस्तियों-मुहल्लों में जल-संशोधनों पर काम हुआ है। कहीं तालाब साफ किए गए हैं, कहीं नए बनाए गये हैं। ऐसे प्रयत्नों की और भी जरूरत है।

जब अपने बचपन की याद करता हूं, तो पाता हूं कि कुओं की कमी न थी। नदियां प्रदूषित न थी। अपनी आंखों से गंगा-यमुना के जल को निर्मल देखा है। और गांवों में ही नहीं, कोलकाता जैसे महानगर में कई सरोवरों का दिख जाना एक सहज दृश्य था। उनमें कुछ आज भी बचे हुए हैं। चिंता तब और अधिक होती है, जब उन प्रदेशों में, जहां काफी बारिश होती थी और आज भी होती ही है; वहां भी गरमी में जल-संकट ऊपर आ जाता है। फसलों को पानी चाहिए। खेतिहर मजदूरों को पानी चाहिए। लेकिन सचमुच ‘बिन पानी सब सून’ ही तो है। गरमी में ऐसे समचार भी कितना दुख देते हैं कि कई जगहों में पशुओं को चारा-पानी न दे पाने के कारण किसान उन्हें बेचने तक को मजबूर हो जाते हैं। जल के नए संसाधन, नये स्रोत ढूंढ़ना जितना जरूरी हैं, उतनी ही जरूरत इस बात की है कि हम बचे हुए पानी को बचाए रखें, उसे बर्बाद न होने दें।