अलका सोनी

जीवन का सबसे सुंदर पड़ाव है बचपन, जहां न आज की चिंता होती है और न आने वाले कल की। यही वह समय होता है, जब हम सूरज की चकमक रोशनी से जागते हैं और रात को चंदा मामा की लोरी सुन सोते हैं। याद आता है वह बचपन, जब नानी घर जाने के सपने संजोए जाते थे। दादी के हाथों से बने लड्डू तो हमारी जान हुआ करते थे। किसी ने ठीक ही कहा है कि बचपन कुदरत का दिया अनमोल तोहफा होता है। ‘कुदरत ने जो दिया मुझे/ है अनमोल खजाना/ कितना सुगम सलोना वो/ यह मुश्किल कह पाना।’

सच में बचपन से खूबसूरत और सलोना समय जीवन में दोबारा नहीं आता। उस दौर में छुट्टियों का इंतजार शिद्दत से किया जाता था। यही वह समय होता था जब नानी के गांव का रुख किया जाता था। वहां बच्चों की आस देखती नानी और साथ में पूरा ननिहाल गांव से बाहर घर रास्ते में खड़ा मिलता था। तब इतने आधुनिक और अंग्रेजी नामों वाले व्यंजनों का नाम लोगों की कल्पना में भी नहीं आते थे। घर के बने शुद्ध घी में चुपड़ी रोटियां, साथ में मिट्टी की हांडी में कई बार खौलाया हुआ गाढ़ा दूध और चीनी कटोरे भर मिलता था। घर की उगाई सब्जियां रखना नानी कभी नहीं भूलती थीं।

खाने की वह मिठास आज तक बहुतों के मुंह में कहीं बैठी लगती होगी, जो आज भी हमारे अंतर्मन को कड़वा होने से बचाती रहती है। पहले पर्व-त्योहार आने पर भी हम उन्हें सच्चे मन से मनाते थे। इतना आडंबर, दिखावा और तामझाम नहीं हुआ करता था। होली, दशहरा हो या दिवाली, हर त्योहार का अलग ही अंदाज होता था। होली तब केवल होली और दिवाली जगमग करती रोशनी फैलाती हुआ करती थी। बच्चे भी उसमें बढ़-चढ़कर अपना योगदान देते थे। नानी-दादी त्योहारों के पीछे छिपी कथाओं को सुनाया करती थी। उनकी महत्ता और विशेषताओं से भी अवगत कराती चलती थी। हम बचपन में ही कितनी सारी कहानियां जान जाते थे।

आज अपने आसपास का माहौल देखकर अफसोस होता है। ताज्जुब होता है यह देखकर कि हम तथाकथित सभ्य और समृद्ध समाज में रहने वाले आने वाली पीढ़ियों को क्या दे रहे हैं। त्योहारों के पीछे की गहरी बातें बताने के बजाय हम उन्हें केवल ऊपरी चमक-दमक से ही लुभा रहे हैं। आज हर चीज को पैसे और चकाचौंध से भर दिया जा रहा है। इसे बढ़ावा देने में बेशक सोशल मीडिया का भी हाथ है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन वेबसाइटों पर हम ही वक्त खपाते हैं, हम ही उनमें गुम हुए जाते हैं। आज हमारा अपने ऊपर से ही नियंत्रण कम होता जा रहा है। त्योहार या अवसर कोई भी हो, हर बार केवल फिल्मी गीतों को दोहराना। उन्हीं धुनों पर नौनिहालों को नचवाना। आज यही परिपाटी बनती जा रही है।

यह किस तरह की संस्कृति बन रही है, कभी समझ में नहीं आई। शिक्षक दिवस हो या दशहरा हो, दिवाली हो या नया साल हो या फिर वसंत पंचमी भी। हर मौके पर उन्हीं धुनों पर बच्चे नाचते-गाते दिख जाते हैं। ऐसा लगता है जैसे अगर उन गीतों पर नहीं नृत्य किया तो और कुछ बचा ही नहीं है करने को। कला का मतलब केवल फिल्में तो नहीं! हर साल स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर औपचारिकता पूरी करने भर के लिए देशभक्ति गीत बजाए जाते हैं। लेकिन वे भी फिल्मी या फिल्मी गानों की तर्ज पर ही होते हैं। क्यों बच्चों को अलग-अलग त्योहारों की विशेषताओं से अवगत नहीं कराया जाता? क्यों उन्हें पर्व-त्योहार मनाने के सही तरीके नहीं सिखाए जाते? अपनी संस्कृति के बारे में जानना उनका भी अधिकार है।

यह ध्यान रखना चाहिए कि बचपन में मिला कोई भी माहौल बच्चों के लिए सामाजिक प्रशिक्षण का काम करता है। वे उस दौर में वही सीखते-समझते हैं, जो उनके सामने घट रहा होता है। इसी दौर में उनके सोचने-समझने का ढांचा विकास कर रहा होता है। यही वजह है कि परिवार और समाज या फिर आसपास जो भी वे देखते हैं, वह उनके मनोविज्ञान में घुलता जाता है। उसी से उनका व्यक्तित्व निर्धारित होता है कि वे समाज और दुनिया के लिए क्या साबित होंगे।

ये बच्चे देश के भविष्य हैं। अगर हम आज नहीं चेते तो एक ऐसी पौध तैयार होगी, जिसे अपनी संस्कृति, अपने त्योहार, यहां तक कि अपने बारे में भी कुछ पता नहीं होगा। जिस जमीन पर वे अपने सपनों का महल बनाएंगे, वह खोखली हो चुकी होगी। बचपन हर किसी के लिए बहुत खास होता है। यह उम्मीदों और संभावनाओं से भरा हुआ होता है। इसमें बहुत सारी खूबसूरत यादें पलती हैं। जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, हमें पता चलता है कि हमारा बचपन सबसे अच्छा था। ऐसा सुंदर बचपन हर बच्चे का हक होता है। उन्हें इन सबसे महरूम नहीं करना चाहिए। उन्हें भी परियों, बौनों और तितलियों के साथ सपनों की दुनिया में उड़ने देना चाहिए। तभी उनके भी पर खुल पाएंगे।