इंसान और छाते में एक बड़ी समानता है। अगर बरसात न होती, तो न हम होते, और न ही छाता होता। दोनों का अस्तित्व बहुत करीब से बरसात, जल के साथ ही जुड़ा है। छाता प्रतीक है सुरक्षा का। बरसात से बचाने का भी काम करता है और कभी धूप से भी। जब गरमी सताती है तो हम बड़ी बेसब्री से बारिश का इंतजार करते हैं, लेकिन बारिश होते ही छाते का इंतजाम भी उतनी ही बेचैनी के साथ किया जाता है। बरसात हो रही हो तो छाते की उपस्थति में आश्वासन और चैन का अहसास होता है। लंबे से छाते की मूठ पकड़ कर चलने में किसी साथी का हाथ पकड़ कर चलने का भान होता है।
छाते का भी एक इतिहास है। प्राचीन मिस्र, ईरान, चीन और भारत में छातों का इस्तेमाल खासतौर पर धूप से बचने के लिए होता था। वे काफी बड़े हुआ करते थे और छाता लेकर कोई सेवादार चलता था। जिसके सिर पर वह छाता तान कर चलता था, उसके लिए छाते और सेवक का होना गर्व, सम्मान और ताकत का प्रतीक था। प्राचीन यूनान ने यूरोप में छाते का परिचय करवाया। अठारहवीं सदी आने तक यूरोप में छाता लेकर चलना एक सामान्य बात हो गई। लंदन में सिर्फ छाते बेचने वाली दुकान जेम्स स्मिथ एंड संस 1830 में शुरू हुई और अभी तक वह कारोबार कर रही है।
बरसात से पहले और बाद में छाता किसी को याद नहीं आता। उसकी हालत गरमी के दिनों के स्वेटर की तरह हो जाती है। और जैसे ही बारिश की बूंदें पड़ती हैं, तुरंत छाते का खयाल आता है। छाते को लेकर हम कितने इस्तेमालवादी हैं! कंपनी ने छातों के ऐसे मॉडल भी बनाए हैं जो साइकिल के साथ जोड़े जा सकते हैं, अपने आप ही खुल जाते हैं और बंद भी हो जाते हैं।
छाते को लादना कइयों के लिए एक बड़ी समस्या है। लोग आजकल अपने साथ बैग, पर्स, लैपटॉप भी रखते हैं। ऐसे में छाता एक आवश्यक बुराई की तरह साथ लेना पड़ता है। कइयों को छाते से बड़ी शिकायतें हैं। हल्की बूंदा-बांदी के लिए तो वह ठीक है, पर तेज बौछारों से बचाने के लिए काम नहीं आता, क्योंकि वे चारों और से भिगोती हैं।
पहाड़ों की बारिश में भी छाता बड़ी ही मासूमियत के साथ अपने हाथ झाड़ लेता है। अब कोई छाता पूरे शरीर की रक्षा के लिए तो बना ही नहीं कि आप पहाड़ों की बारिश से बच जाएं। मैदानी इलाकों में आप छाता भर धूप और पानी से बच जाते हैं। यह क्या एक आशीष की तरह नहीं कि बूंदें बादल से निकल कर धरती में समाने से पहले आपको भिगोती हैं, थोड़ी-सी आपकी थकान, मुट्ठी भर आपका दर्द और दुख भी धरती को सौंप देती हैं? कोई अहसान जताए बगैर ही!
छातों से कभी-कभी हादसे भी होते हैं। अक्सर आंखों को बचाना पड़ता है। कुछ कंपनियां इस खतरे को ध्यान में रख कर नए छाते डिजाइन कर रही हैं, जिसकी तीलियां नुकीली न हों और ज्यादा चोट न पहुंचाएं। जापान में एक ऐसा छाता भी बनाया जा रहा है, जिसके ऊपर की तरफ कोई अवरोध नहीं, बस उसकी नली से तेजी के साथ गरम हवा निकलेगी और ऊपर से आने वाली बरसात की बूंदों को इधर-उधर बिखेर देगी। भले ही कई तरह के नए डिजाइन आ जाएं पर लंबी डंडी वाले और खूबसूरत मूठ वाले काले छाते का अपना ही रोमांस है।
छाते के साथ एक बहुत बड़ी समस्या जुड़ी हुई है, और वह है विस्मृति। छाता कहीं भी भूल जाना एक आम बीमारी है। कई लोग इस बीमारी से इतने दुखी हो जाते हैं कि वे छाता कहीं ले जाने से ज्यादा भींगना ही पसंद करते हैं। अंग्रेजी के लेखक रॉबर्ट लिंड का मशहूर लेख है विस्मृति के बारे में, जिसमें वे कहते हैं- ‘छाता कहीं खो न जाए, इस भय से मैं उसे कहीं ले ही नहीं जाता। गंभीर से गंभीर छाता-वाहक के नसीब में भी यह उपलब्धि नहीं होगी कि उसने कोई छाता न खोया हो!’
मैंने तो इतने छाते खोये हैं कि ऐसी भी एक स्थिति आ गई कि किसी बैठक में जाते ही मैं घोषणा कर देता था कि अपने छाते संभाल कर रखें, मुझे किसी का भी मिलेगा तो मैं लेता जाऊंगा! जिन्होंने मेरी इस स्पष्ट और मासूम घोषणा को गंभीरता से नहीं लिया, उन्हें इसका खमियाजा भुगतना पड़ा।
इन दिनों तो ज्यादा एहतियात की जरूरत है। हल्का सर्दी-जुकाम भी हो जाए, तो लोगों के मन में तमाम तरह की दुश्चिंताएं आने लगती हैं। वैसे एक पैकेट प्रभावी एंटी-बायोटिक्स की कीमत भी किसी छाते से कम नहीं होती। इसलिए बेहतर है कि बारिश तेज होने से पहले ही अपने पुराने छातों की बढ़िया से मरम्मत करवा ली जाए और नए छातों को हिफाजत के साथ रखा जाए। सर्वेश्वर जी ने इस बात को खूब समझा था और इसीलिए इतनी प्यारी कविता छाते के लिए लिख छोड़ी है- ‘विपदाएं आते ही, खुलकर तन जाता है/ हटते ही/ चुपचाप सिमट ढीला होता है/ वर्षा से बचकर/ कोने में कहीं टिका दो/ प्यार एक छाता है/ आश्रय देता है गीला होता है।’