आलोक कुमार मिश्रा
सरकारी स्कूल के शिक्षक अपनी कक्षा या विद्यार्थियों पर बात करते हुए अक्सर कहते हैं कि ‘हमारे विद्यार्थी बहुत गरीब घरों से आते हैं… उनकी परिस्थितियां बहुत अलग हैं… और ये बच्चे पहली पीढ़ी के अधिगमकर्ता हैं।’ साधारण से लगने वाले इन वक्तव्यों में मुख्य मंतव्य भले ही अपने काम के महत्त्व को दर्शाना हो, पर इनमें कई अनकहे, लेकिन आसानी से समझ लिए जाने वाले संदेश भी अंतर्निहित होते हैं। इनका लब्बोलुआब यह है कि इन बच्चों के लिए शिक्षा कोई प्राथमिकता नहीं है। घर की परिस्थिति अनुकूल न होने से ये बच्चे पढ़ते-लिखते नहीं या पढ़-लिख नहीं सकते।
दरअसल, ‘गरीब’ जैसे शब्द के आवरण में इन बच्चों की अनंत संभावनाओं, विविध क्षमताओं, उनके जीवन के संघर्षों और उसमें उनकी संलग्नता को ढक दिया जाता है। पिछले कुछ दशकों में यह द्वैध लगभग स्थापित हो चुका है कि संपन्न और अमीर तबके से आने वाले विद्यार्थियों के लिए महंगे, सुविधासंपन्न निजी स्कूल हैं और गरीब या साधारण आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले विद्यार्थियों के लिए एकमात्र विकल्प सरकारी स्कूल हैं। संसाधनों के मामले में सार्वजनिक स्कूल महंगे निजी स्कूलों से बहुत पीछे दिखते हैं।
समता और न्याय आधारित समाज के लक्ष्य वाले लोकतांत्रिक देश में यह असमान विभाजन गलत है। इस विभाजन को गरीब घरों के बच्चों की नियति ही मान लेना और बदलाव के लिए प्रयास न करना और भी गलत है। सबके लिए सर्वसुलभ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराना सरकारों की संवैधानिक और नैतिक जिम्मेदारी है।
आज की परिस्थितियों में गरीब पृष्ठभूमि से आने वाले हमारे विद्यार्थियों के लिए विकल्प और अवसर भले सीमित हों, लेकिन उनमें निहित क्षमताएं और संभावनाएं अनंत होती हैं। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले ये बच्चे अपनी पारिवारिक परिस्थितियों और उनसे जुड़े रोजमर्रा के संघर्षों में जीवन से अधिक जुड़े होते हैं। घर, परिवार और समाज में इनकी सीधी सहभागिता होती है।
घर की समस्याएं हों या फिर बाजार की गतिविधियां, भविष्य की योजना बनाना हो या फिर निर्णयों में हिस्सेदारी, हर मामले में भागीदारी के उनके पास ज्यादा अवसर होते हैं। भले ही यह कोई वरेण्य स्थिति नहीं है, लेकिन इन सबसे इनकी जीवन की व्यवहारिक समझ अच्छी हो जाती है।
इसके बरक्स सब कुछ उपलब्ध करा दिए गए उच्च और मध्यवर्गीय बच्चों के पास ऐसे अवसर न के बराबर उपलब्ध होते हैं। जीवन के संघर्षों से दूर, आरामदायक और सुरक्षा से भरपूर जीवन जी रहे इनके अभिभावकों में अपने बच्चों के लिए ऐसे ही या इससे भी बढ़कर जीवन स्थितियों की चाह होती है।
अपनी इस लाभ की स्थिति को बनाए रखने और इसे बढ़ाते रहने के लिए इन अभिभावकों में निरंतर बच्चों पर नजर रखने, प्रतियोगिताओं में सफल होने के लिए टोकाटोकी करके उन पर दबाव बनाए रखने और सुरक्षा की चिंता से नियंत्रण करने की प्रवृत्ति अधिक होती है। इस प्रक्रिया में जीवन के स्वाभाविक आनंद और चुनौतियों से उन्हें काट दिया जाता है। इसलिए ये बच्चे जीवन और उसकी परिस्थितियों से भी उतने भिज्ञ नहीं हो पाते हैं। रोजमर्रा की समस्याओं से इनका कोई सार्थक वास्ता नहीं हो पाता।
सरकारी स्कूल के कुछ बच्चे औपचारिक शिक्षा की रीढ़ लिखने-पढ़ने के कौशल में भले ही कुछ कम दिखते हों, लेकिन परिस्थितियों की वजह से जीवन से जुड़ाव में इनका कोई सानी नहीं होता। फिर ये बच्चे शिक्षा में पीछे कैसे हो जाते हैं या हो सकते हैं? दरअसल हमारी वर्तमान शिक्षा ही जीवन से दूर है। हमारा समस्त शिक्षण शास्त्र उच्च और मध्यवर्गीय आकांक्षाओं और जरूरतों से संचालित हैं। अगर सरकारी स्कूलों के शिक्षक अपने शिक्षण के तौर-तरीकों को अपने विद्यार्थियों की जरूरतों और परिस्थितियों के अनुरूप ढाल पाएं, शिक्षा की जीवन से दूरी घटा पाएं तो इन बच्चों से बेहतर कोई नहीं हो सकता।
इसी तरह किसी भी पृष्ठभूमि से आने वाले विद्यार्थी को पहली पीढ़ी के अधिगमकर्ता की श्रेणी में रखना या इस रूप में उसे पहचानना, अकादमिक तरीके से उसे अपमानित करने के बराबर है। अधिगम की यह नितांत औपचारिक, तंग और आधुनिक समझ है। सीखना केवल स्कूलों में ही नहीं होता। जीवन की शाला में हर कोई सीखता ही रहता है। कभी स्कूल न गए मजदूर, किसान, शिल्पकार आदि भी अपने कार्यक्षेत्र में बहुत कुछ सीखते रहते हैं।
इतिहास में इन वर्गों का योगदान किसी से कम नहीं है। स्कूली व्यवस्था ने एक सचेत, क्रमबद्ध और व्यवस्थित अधिगम प्रणाली को जरूर जन्म दिया है। लेकिन इसका ये अर्थ नहीं है कि इस व्यवस्था से अभी तक बाहर रहे लोगों को यह कहा जाए कि उनकी पहले की पीढ़ियों ने कुछ सीखा ही नहीं और स्कूलों से जुड़कर वे पहली पीढ़ी के अधिगमकर्ता हैं। ऐसे विशेषणों से बचना ही होगा। आखिर कहे जाने वाले कथन और उनमें निहित मंतव्य समझ और प्रतिबद्धता को ही नहीं, हमारे पूरे व्यक्तित्व को भी प्रगट करते हैं। हमारी नई पीढ़ी हर तरीके से बेहतर की हकदार है, बिना किसी भेदभाव के।