एकता कानूनगो बक्षी

अक्सर देखा गया है कि समर्पित भाव से अपने काम को अंजाम देते लोग केवल नींव की ईंट बनकर रह जाते हैं। सब बातों का ध्यान रखने पर भी उन्हें वह सम्मान, स्नेह, प्रशंसा कभी नहीं मिल पाती, जिसके लिए वे योग्य होते हैं। उल्टे कभी-कभी तिरस्कार, कटु वचन और अन्य की निरर्थक अपेक्षाओं का बोझ भी वे महसूस करने को विवश हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसे समर्पित लोग दीए की जलती बाती की तरह अपने सहज स्वभाव, विनम्र आचरण, लगन और संवेदनशीलता की अग्नि में खुद को नष्ट करते हुए प्रकाश फैलाते रहते हैं। सब तरफ जब दिखावे, बड़बोलेपन का मकड़जाल फैला हुआ हो तो भला किसी के द्वारा ईमानदारी, निस्वार्थ और समर्पण भावना से किए गए काम पर कोई कैसे ध्यान दे सकता है!

किसी का मखौल उड़ाते हुए मनोरंजन करना हम पर इतना अधिक हावी है कि हमारे भले की अच्छी चीजें और व्यक्ति भी हमें उबाऊ लगने लगते हैं। संवेदनशील और भले लोगों के जीवन को सुखमय बनाने के लिए कई हितैषी कई सारी हिदायतों के साथ बिन बुलाए भी अवतरित होते रहते हैं। सुधार की उम्मीद भी अक्सर भले इंसान से ही की जाती है। जो किसी की नहीं सुनते, जीवन भर अपनी मर्जी का जीवन जीते हैं, शायद ही उन्हें कोई सलाह-मशविरा देने का साहस करता होगा। ऐसे में भले आदमी को ही जो सुझाव मिलते हैं, उनमें यह भी सुनने को मिलता है कि ‘जरा मोटी चमड़ी के हो जाओ! जैसा कर रहे हो करते रहो।’ इस विचार के पीछे केवल शारीरिक बदलाव ही नहीं, मानसिक संरचना में भी बदलाव का आह्वान है जो थोड़ा जटिल काम हो सकता है, पर आज के उन्नत और चमत्कारों के समय में वैसे भी कुछ असंभव नहीं बचा रह गया है।

हम सभी यह जानते हैं कि व्यायाम के दौरान हमारी मांसपेशियां टूटती हैं और फिर से ठीक भी हो जाती हैं। लगातार विश्वास टूटते रहने, अपमानित होने से एक समय के बाद शायद हमारे मन-मस्तिष्क पर जो बोझ था, उसका असर समाप्त हो जाता होगा। यह भी विचार करने वाली बात है कि शारीरिक घाव या चोट एक समय बाद ठीक होने लगती है, हमारे दुख शरीर से कहीं ज्यादा हमारे मन-मस्तिष्क मे आश्रय पाते हैं और लंबे समय तक बने रहते हैं। अब सोचने वाली बात यह है कि अगर ढीठ ही हो जाना था तो बचपन मे उसे बुरा क्यों बताया जाता रहा है!

पुरानी सदाबहार फिल्म ‘राम और श्याम’ में दिखता है उदाहरण

पुरानी सदाबहार फिल्म ‘राम और श्याम’ में हमने खलनायक प्राण को अभिनेता दिलीप साहब के सीधे सादे किरदार राम पर कोड़े बरसाते हुए देखा है। राम कई वर्षों तक बिना कारण के कोड़े खा रहा होता है। देखा जाए तो इतने प्रहार के बाद तो उसकी चमड़ी कोड़े खाने की अभ्यस्त हो चुकी होगी और वह मजबूत बन चुका होगा। फिर भी राम को डर लगता है। सब कुछ ठीक होते हुए भी उसका व्यक्तित्व असंतुलित होने लगता है। बात यह है कि अब कोड़े से उसे उतना दर्द नहीं हो रहा होता है, खलनायक की मौजूदगी, अपमान, असुरक्षा और विषम स्थितियों का निर्मित हो जाना राम को डरा देता है। राम का डर, दुख, दर्द शरीर से निकलकर अब मन में आश्रय पा गया होता है। दूसरी ओर, राम का जुड़वां भाई श्याम कष्ट और अभाव के जीवन के बाद भी प्राण के छक्के छुड़ा देता है, क्योंकि उसके मन में किसी तरह का डर या खौफ मौजूद नहीं है।

फिल्म के पात्र राम की तरह हममें से कई लोग डर और खौफ का भार लिए जीवन भर सब कुछ अच्छा करते हुए असंतुष्ट, हताश जीवन को चुपचाप जीते रहते हैं। यहां तक कि दूसरों के दुख, निराशा, लाचारी को भी खुद की जिम्मेदारी के रूप में महसूस करने लगते हैं। मानो सारी परेशानियों की जड़ में वे ही हों। ऐसे संवेदनशील लोगों के भीतर बेवजह का अपराधबोध बहुत जल्दी घर बना लेता है। यह हमारी बहुत बड़ी भूल है। जब हम किसी समर्पित इंसान को यह समझाते हैं कि दूसरों की बातों को दिल पर न ले और सोचते हैं कि इससे उसका जीवन बेहतर हो जाएगा। किसी के स्वाभिमान पर चोट करना, आभार व्यक्त करने की जगह उसे अपमानित करना, ये समाज के विकार हैं। इन्हें बदला जाना चाहिए, रोका जाना चाहिए।

सबसे पहले अपने आत्मसम्मान के लिए हाथ बढ़ाएं

हर व्यक्ति को किसी और के लिए कुछ भी करते समय बेशक निस्वार्थ भाव रखना चाहिए, पर सबका करते हुए खुद को भी विरोधाभास, अपराधबोध, अपनों को खोने का, उम्मीदों पर खरे न उतरने जैसे डर से आजाद कर देना चाहिए। जो सबकी मदद के लिए हमेशा तैयार रहता है, उसे सबसे पहले अपने आत्मसम्मान और खुशियों के लिए भी हाथ आगे बढ़ाना चाहिए। किसी और से औपचारिक वाहवाही से कहीं अधिक मूल्यवान है खुद के भीतर की संतुष्टि को महसूस करना। दूसरों की मूर्खता, अनभिज्ञता का बोझ सिर से उतार अपनी क्षमताओं, संभावनाओं, रचनात्मकता का जश्न मनाना सही अर्थों में जीवन को जीना कहा जा सकता है।