श्रीप्रकाश शर्मा
ओशो की एक कहानी अत्यंत प्रेरणादायी है। किसी गांव में एक सिद्धपुरुष रहता था, जो अपनी अलौकिक सिद्धि से भविष्य की घटनाओं को पहले ही देख लेता था। एक दिन शाम के धुंधलके में उस सिद्धपुरुष को अपने सामने से मृत्यु के कालदेवता गांव में दाखिल होते दिखाई दिए। उनका दिल कई आशंकाओं और अंदेशों से सहसा ही बैठ गया। उन्होंने भयभीत होते हुए उनके इस तरह गांव में प्रवेश करने का प्रयोजन पूछा। ‘मैं एक संक्रामक रोग के माध्यम से इस गांव में दस हजार लोगों की जान लेने आया हूं। इतनी मौतों के बाद मैं स्वयं इस गांव का परित्याग कर वापस लौट जाऊंगा।’ अपने गांव में घटित होने वाली दुखद घटना को जान कर वह अत्यंत दुखी हो गया। समय तेजी से गुजरता गया और गांव में महामारी के कारण एक-एक करके दस हजार से कई गुना अधिक लोगों की अकाल मौत हो गई।
जिस दिन कालदेवता अपने देवलोक को प्रस्थान कर रहे थे, सिद्धपुरुष के धैर्य का बांध टूट गया और क्रोधित होकर पूछा, ‘हे अंतर्यामी, आपने तो कहा था कि आप इस गांव में केवल दस हजार लोगों की जान लेने आए हैं, लेकिन मरने वालों की संख्या तो पचास हजार से भी अधिक है। भला आपका यह कैसा न्याय और वचन है महाराज?’ कालदेवता थोड़ी देर के लिए स्तब्ध रहे और फिर बड़े धीरज से जवाब दिया, ‘मेरा विश्वास करो, मैंने तो केवल दस हजार लोगों की जान ली है, शेष की मृत्यु तो मृत्यु के भय के कारण हुई है। अब तुम्ही बताओ, भला मैं उन व्यक्तियों की मृत्यु के लिए किस प्रकार दोषी हूं, जिन्हें मैंने खुद मारा ही नहीं!’ सिद्धपुरुष निरुत्तर हो गए और मानव जीवन में भय के जानलेवा मनोविज्ञान से पहली बार साक्षात्कार से व्यथित होकर अपने आश्रम में लौट आए।
इस सत्य से इनकार करना आसान नहीं होगा कि भय का मानव से रिश्ता उसके जन्म सरीखा ही अभिन्न है। यही कारण है कि यह मानव के कुदरती और स्वाभाविक गुणों में शुमार होता है। पर मानव जीवन में भय की प्रकृति अलग-अलग होती है। कोई जीवन से डरता है तो कोई मृत्यु से, कोई अंधेरे से डरता है तो कोई डर के मारे रौशनी से अपनी आंखें बंद कर लेता है। कोई ऊंचाई से भयभीत रहता है तो कोई नीचे गिर जाने के डर से एक-एक कदम फूंक-फूंक कर रखता है। किसी के लिए विफलता का भय मन को विचलित करता है तो किसी को सफलता के कलश-कंगूरे पर चढ़ कर वापस जमीन पर लौट जाने की चिंता खाए रहती है। आशय है कि इस धरती पर ऐसा कोई भी शख्स नहीं, जो भय से मुक्त हो।
भय के बारे में संजीदगी से विचार करें तो यह सत्य आसानी से प्रकट हो जाता है कि यह हमारे कमजोर मस्तिष्क की उपज होता है। भय की झूठी कहानियां, उनके छद्म दृश्य, काल्पनिक पात्र और अवास्तविक प्रभाव मन में ही गढ़े जाते हैं, मन में ही उनका मंचन होता है और मन में ही उनके उलटे-सीधे समाधान भी ढूंढ़े जाते हैं। यही कारण है कि मन में भय का भ्रमजाल अपनी गहरी पैठ बना लेता है। मूल रूप से भय की उत्पत्ति साहस और आत्मविश्वास की कमी से शुरू होती है। लिहाजा यह अनिवार्य है कि जीवन की कठिनतम परिस्थितियों में भी हम धैर्य और साहस का दामन न छोड़ें। मशहूर अमेरिकी कवि राल्फ वाल्डो इमर्सन का मानना था कि ‘वैसे काम को कीजिए जिससे आपको डर लगता हो, तो भय की मृत्यु निश्चित है।’ यानी जहां हमारा साहस कमजोर पड़ने लगता है और हम खुद में विश्वास करना छोड़ देते हैं, वहीं हम भय का शिकार हो जाते हैं।
यूनानी दार्शनिक अरस्तू कहते थे कि जीवन में कुछ बुरा घटित होने के अंदेशे से उत्पन्न दर्द से ही भय की इब्तिदा होती है। कुल मिलाकर भय हमारी कमजोर मानसिक अवस्था का नतीजा होता है। अगर भय मन की कमजोर अवस्था है, तो एक अहम प्रश्न यह उठता है कि आखिर भय को कैसे जीता जाए? नीदरलैंड के प्रसिद्ध चित्रकार वॉन गॉग कहते थे कि अगर आपकी अंतरात्मा से यह आवाज आती है कि आप चित्रकारी नहीं कर सकते, तो इसके लिए सारी शक्ति और संसाधन लगा दीजिए और अंतत: वह आवाज शांत हो जाएगी। डर हमारी आंतरिक शक्ति को भी विकसित करता है और जीवन की अप्रिय घटनाओं का सामना करने के लिए आवश्यक ऊर्जा प्रदान करता है। अगर जीवन में भय की एक निश्चित मात्रा न हो, तो जीवन में लक्ष्य प्राप्ति को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। इसलिए जब आप डरे हुए हों तो परेशान होने के बजाय मन को तसल्ली दीजिए कि आपको अपने जीवन के सबसे खूबसूरत सपने को साकार करने के लिए आवश्यक उत्प्रेरक की प्राप्ति हो गई है।