टेसू के फूलों की महक और आम के पेड़ों पर छाई मोरों अमराई की भीनी-भीनी खुशबू केवल फागुन की दस्तक ही नहीं देती, बल्कि भगोरिया उत्सव के आने की सूचना भी देती है। मध्यप्रदेश के पश्चिमी आदिवासी अंचल में सात दिवसीय सांस्कृतिक लोकपर्व भगोरिया मनाया जाता है। यह पर्व होली दहन के सात दिन पहले से प्रारंभ होता है, लेकिन देश के हर बड़े शहरों में भगोरिया वर्ष भर मनाया जाता है, लेकिन इसका स्वरूप दूसरा होता है और उसे औपचारिक रूप से कोई उत्सव का दर्जा नहीं दिया जाता है, एक दिन को छोड़ कर। उस दिन को ‘वेलेंटाइन डे’ भी कहते हैं। जहां तक मूल भगोरिया की बात है तो उसके दौरान आदिवासी लड़के-लड़कियां अपने प्रेम का इजहार एक दूसरे से करते हैं। जब प्रेम प्रस्ताव मंजूर होता है तो लड़का-लड़की वहां से भाग जाते हैं और उनके गांव वाले शोर करते हुए चिल्लाते हैं- ‘भागरिया-भागरिया।’ बस यह भागरिया ही बाद में ‘भगोरिया’ में परिवर्तित हो गया।

स्थानीयता के लिहाज से देखें तो वहां यह परंपरा वर्षों से चल रही है और उसमें गांव के सभी लोग शामिल होते हैं। इसे उत्सव की तरह मनाते हैं, कोई आपत्ति नहीं होती। लेकिन शहरों में जहां युवक-युवतियां प्रेम संबंधों में शामिल होते हैं, वहां भी सामाजिक स्थितियां उतनी सहज और निर्बाध नहीं हैं। लेकिन तमाम बाधाओं के बावजूद शहरों में ‘भगोरिया’ की अवधारणा का आनंद किशोरावस्था से ही उठाते देखा जा सकता है। स्वरूप त्योहार का नहीं होता, लेकिन अभिव्यक्ति वही होती है। किशोर दिखने वाले लड़के-लड़कियां भी एक-दूसरे की बाहों में बाहें डाले घूमते हुए पाए जा सकते हैं। पता नहीं, ये अपने या अपने माता-पिता के सपनों को पूरा करने का समय कैसे निकाल लेते हैं।

एक शोध के दौरान जो निष्कर्ष निकल कर सामने आए, उसका आशय यह था कि आजकल के बच्चे आंइस्टीन से भी अधिक प्रतिभाशाली हो गए हैं। घंटे भर पढ़ कर परीक्षा रूपी वैतरणी को आसानी से पार कर लेते हैं। माता-पिता अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई को इन पर व्यय इस आशा में करते हैं कि ये अपना और अपने माता-पिता का नाम रोशन करेंगे। महान वैज्ञानिक न्यूटन ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि किसी भी वस्तु को ऊपर की ओर उछालो तो पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के प्रभाव से वह तेजी से नीचे की ओर आती है।

शहर के किसी भी मॉल या पार्क में ‘भगोरिया’ जैसे माहौल को देखा जा सकता है। मध्यप्रदेश का ‘भगोरिया’ तो कुछ खास दिनों का उत्सव होता है। लेकिन शहरों में ऐसी जगहों पर पूरे साल प्रेमी-प्रेमिका विचरण करते रहते हैं। अगर आपको कभी भगोरिया वाले इलाकों में जाने का मौका लगा हो तो आपने देखा होगा कि वहां लोग इन मेलों में मिठाई की दुकानों, झूले-चकरी, घोड़ा और ऊंट की सवारी करने में मगन मिलते हैं। अगर कोई इन सबसे निपट कर ऊबने लगता है और एकांत में बैठना चाहता हो तो चलंत सिनेमा-घर में फिल्म देखने बैठ जाता है। इन भगोरिया मेलों में युवक-युवतियां अपने शरीर पर अलग-अलग तरह के चित्र गुदवाते हैं।

यह ठीक वैसा है, जैसे शहर के युवा टैटू बनवाते हैं। इस प्रकार, शहरों-महानगरों में युवाओं के चलते ऐसे दृश्य बने रहते हैं कि लगता है कि यहां रोज भगोरिया का ही त्योहार चल रहा हो। हां, एक अलग स्थिति यह होती है कि कई बार प्रेम संबंधों में त्रिकोण की तस्वीर खड़ी हो जाती है। ऐसे में जो ताकतवर होता है वह पूरी ताकत का इस्तमाल करते हुए अपने प्रेम को हासिल करने की कोशिश करता है। इसमें कई बार हिंसा का भी सहारा लिया जाता है। और यहीं यह प्रेम की मूल भावना और भगोरिया से अलग हो जाता है। शहरों में युवा वर्ग के बीच के संबंध दिखने में भगोरिया का अहसास देते हैं, लेकिन यहां प्रेम संबंधों में भावनाएं जिस तेजी से छीज रही हैं, उसमें इसकी तुलना भगोरिया से करना ठीक नहीं है।

भगोरिया में लड़के-लड़कियों को शराब का सेवन करते हुए भी देखा जा सकता है, लेकिन स्थानीय तौर पर यह सब वर्ष में केवल एक ही बार होता है, जिसके बाद लोग मदमस्त होकर ढोल और मादल की थाप पर नृत्य करते हैं। यही दृश्य शहर में होटलों, मॉल या पार्कों में भी देखे जाते हैं। अंतर बस यह है कि भगोरिया वाले इलाकों में लोग झूमने के लिए ढोल और मादल का प्रयोग होता है, लेकिन शहरों में डीजे का शोर होता है। यानी जो लोग मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र के निवासी नहीं हैं, उन्हें निराश होने जरूरत नहीं है। शहरों में हर रोज प्रणय-पर्व आम हो चुका है।