कभी-कभी मन करता है कि यों ही निकल जाऊं निरुद्देश्य-सी किसी वैसी जगह, जहां न जाने की जल्दी हो और न पहुंचने पर देर होने की फिक्र। दिमाग मुक्त हो सके तमाम तरह के तनावों से। ढीली हो सकें माथे की वे सिलवटें, जिनका कसीलापन मुझे मुक्त नहीं होने देता खुद से। माथे की वे सिलवटें नजरों को फैलने नहीं देतीं चौड़ी लंबी सड़क तक! एक अनचाहा तनाव आंखों की पुतलियों को घूमने नहीं देता उस ओर जहां हर विशाल वृक्ष अपनी शाखाओं को फैलाए हुए है। मन क्यों देखना चाहता है छोटे-छोटे आमों को टहनी पर लटकते हुए। कोई बचपन-सा भाव उकसाता है कि उछल कर एक टहनी लपक लूं और झकझोर कर खूब आम गिरा डालूं, फिर हर आम के गिरने पर जोर से ठहाका लगा कर हंसूं। चिल्लाऊं कि सुन सकूं भीतर तक खुद को!
ऐसी तमाम कल्पनाएं मन में करवटें ले रही हैं, क्योंकि आजकल विश्वविद्यालय की सड़कों पर अपनी अकादमिक औपचारिकता को पूरा करते हुए बहुत घूमना पड़ता है। औपचारिकताएं, जिनके लिए किसी प्रकार की कोई जवाबदेही नहीं है और न ही कोई अंतिम तिथि। अपने बाईस साल के विद्यार्थी जीवन में इस तरह का ठहराव पहली बार महसूस कर रही हूं जब मुझे वैसे क्षण के आने की चिंता नहीं सता रही, जहां मेरी परीक्षाएं ली जाएंगी और मुझे तीन या दो घंटे के निर्णायक क्षणों में अपने पूरे वर्ष के ज्ञान का परचम किसी सफेद पन्ने पर उतारना होगा। शायद मन के ठहरने पर ही कल्पनाएं वहां जगह बना पाती हैं।

बहरहाल, आजकल विश्वविद्यालय में परीक्षाएं चल रही हैं, जहां-तहां फोटोकॉपी की दुकानों पर विद्यार्थियों का तांता लगा रहता है। आमतौर पर विद्यार्थी उन किताबों या नोट्स की जुगत में लगे रहते हैं जो उस विषय से संबंधित हैं जिसे उन्होंने वर्ष भर नहीं पढ़ा है, लेकिन उस पर प्रश्न पूछे जाने की संभावना है। इसी प्रकार, आजकल किसी भी पुराने दोस्त के परिचित का फोन आ जाता है। यह कहते हुए कि सुना है कि आप फलां विषय के फलां पाठ के बारे में क्या हमारी मदद कर सकती हैं!
हाल ही में एक पुराने मित्र का सुबह फोन आया। उन महाशय की जिस विषय की परीक्षा थी, उसे वे पढ़ नहीं पाए थे। वे चाहते थे कि मैं उस प्रश्न से संबंधित थोड़ा कुछ बता दूं, बाकी कहानी वे खुद उसी लाइन पर गढ़ लेंगे। लेकिन मैंने इस विषय पर बिना कुछ पढ़े कुछ बताने से मना कर दिया। इसी तरह, कुछ दिन पहले मैं और मेरे एक मित्र बात कर रहे थे। इस बीच उनकी किसी मित्र का फोन आया। वे उनसे अपने अगले दिन की परीक्षा के विषय से संबंधित जानकारी मांग रही थीं। इस पर मित्र ने कहा कि वे अभी कहीं बाहर हैं और तुरंत उनके सवाल का जवाब दे पाने में असमर्थ हैं और क्या वे उनके सवाल का जवाब घर जाकर थोड़ा पढ़ कर दे सकते हैं? इस पर उनकी उस मित्र ने कहा कि अभी आपको जितना याद है, आप वही बता दीजिए, ताकि थोड़ी राहत मिल जाए। इस पर मित्र ने कुछ सामान्य-सी लगने वाली बातें उन्हें उस प्रश्न के जवाब के तौर पर बता दीं।

ये सभी घटनाएं जेहन में चलती रहीं और लगने लगा कि क्या है ऐसा जो किसी को भी ठहर कर सोचने नहीं दे रहा है! विद्यार्थी जीवन क्यों इतना कुछ अस्त-व्यस्त हो जाता है परीक्षाओं के समय! क्या हम सिर्फ परीक्षाएं पास करने के लिए पढ़ रहे हैं? क्या हमारे दिमाग में सिर्फ यही चलता रहता है कि अगर परीक्षाएं पास नहीं की गर्इं तो समाज में हमें एक नाकाम प्राणी की तरह देखा जाएगा? क्या हमें यह डर सताता है कि माता-पिता के लिए हम उनके नाकारा बच्चे कहलाएंगे? इस भविष्य से क्या हम भय खाते हैं कि बाजार हम असफल व्यक्तियों को अच्छी नौकरी नहीं देगा? क्या इस बात का भी डर होता है कि लड़के-लड़कियों को तथाकथित अच्छे विवाह प्रस्ताव नहीं मिलेंगे?

शायद इसी तरह के तमाम सवाल और डर हैं कि स्कूल में आने के बाद बच्चा एक प्रकार की अंधी दौड़ में शामिल हो जाता है। इस अंधी दौड़ का एकमात्र लक्ष्य है परीक्षाओं में पास होना। इस दौड़ में जीवन को समझने की, दुनिया को जानने और सीखने की ललक कब पीछे छूट जाती है, पता ही नहीं चलता। पता रहता है तो बस इस प्रतियोगी विश्व में नाकाम होने का डर। शिक्षा को लेकर रवींद्रनाथ ठाकुर कहते हैं कि शिक्षा वह है जो डर से मुक्त करती है। लेकिन क्या इस प्रतियोगी दौर में हमारी शिक्षा हमें मुक्त कर रही है? या फिर इसके उलट आज की शिक्षा हमें जकड़ रही है? आजकल सड़कों पर यों ही चलते हुए मन अक्सर इस जकड़न को महसूस करने लगता है!