कंबल रजाई में लिपटी, कांपती हुई ठंड के विदा लेते ही हंसती-मुस्कराती बसंत ऋतु आ गई है। उसके स्वागत में धरती रंग-बिरंगे फूलों से शृंगार करके इठला रही है। उसके बहुविध रंगों से सजे चेहरे के आगे आकाश को अपने नीलेपन की एकरसता खटकने लगी है। उसके मन में अभी भी अपनी उन सखियों की याद ताजा है जो कुछ दिन पहले मकर संक्रांति पर उसके आंगन में अपने नृत्य का रंगारंग कार्यक्रम दिखा कर उसे मुग्ध कर गई थीं। वे सखियां थीं ढेर सारी पतंगें, जिन्होंने आकाश की पुकार सुन कर गोल-गोल फिरकियां लेने वाले घूमर नृत्य का आयोजन कर डाला था। अपनी चित्र-विचित्र रंगों से आकाश की एकरस नीलिमा मिटा दी थी उन्होंने। उनकी बहुरंगी काया से भी अधिक मादक था उनका उल्लास, जो डोर के झूले पर सवार होकर ऊंची-ऊंची पेंगों में जीवंत हो गया था। इंद्रधनुषी रंगों से सजे अपने पंख फड़फड़ाते हुए उन्होंने अपनी सीमाओं को पूरी तरह भुला दिया था।
भला यह भी कोई याद रखने की बात थी कि उनके पांवों को जंजीर की तरह जकड़ने वाली डोर की लंबाई ही उनके उत्कर्ष की सीमा थी! कितना जरूरी होता है अपनी सीमाओं की पूरी तरह अनदेखी करना, जब वे पछुआ हवा की सरसराहट पर आरूढ़ होकर, आकाश को रंग देने के अभियान पर निकलें! हर समय अपनी सीमाएं याद रखने वाला, हमेशा अपने पैरों में बंधी जंजीर के प्रति सचेत रहने वाला भला आकाश की ऊंचाइयों को कभी छू सकता है? लेकिन बसंत का उल्लास भी युवाओं के मन में टिके तो कितने दिन! फागुन की गुनगुनी ऊष्मा महसूस करने का समय कहां होगा, जब परीक्षा सिर पर होगी। आकाश से उतर कर पतंगें कॉपियों-किताबों से बुने परदे के पीछे जाकर छिप जाएंगीं। फूलों के मौसम का उल्लास परीक्षा के गहराते आतंक के आगे उड़न-छू हो जाएगा। भले बसंत पंचमी पर परंपरा निभाने को सरस्वती पूजन किया गया हो, सच्चे मन से मां सरस्वती का ध्यान तो अब आएगा जब ऋतुराज का उल्लास परीक्षा के तनाव के आगे फीका पड़ने लगेगा। हवाओं में चढ़ रही गुलाबी गुनगुनाहट भी उसके सामने पस्त होगी।
ऋतु-परिवर्तन का सौंदर्य चिंतामुक्त मन को ही भाता है। ऋतुओं का सौंदर्य उनके परिवर्तन में है, इस मर्म को समझा था महाकवि कालिदास ने। उनकी पहली काव्य रचना मानी गई ‘ऋतुसंहार’ में ऋतुओं के परिवर्तन का अनूठा विवरण है। ऋतुओं का संधान कालिदास ने ग्रीष्म से आरंभ किया है। उसके बाद वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर ऋतुओं के बदलाव के सांगोपांग चित्रण के बाद उनकी प्रेमिका को समर्पित इस खंडकाव्य का समापन बसंत ऋतु से होता है। ऋतुओं का सौंदर्य कालचक्र के अधीन है। ऋतुसंहार का अंत बसंत की सुंदरता के वर्णन के साथ करने के पीछे यही उद्देश्य रहा होगा कि काव्यपाठ के बाद ऋतुराज की सुषमा काव्यरसिकों की आंखों में बसी रह जाए।
ऋतुओं की क्षणभंगुरता भुला कर उन्हें अमरत्व प्रदान करने का जतन अंग्रेजी के महाकवि वर्ड्सवर्थ ने भी अपनी भावपूर्ण कविता ‘डैफोडिल्स’ में किया था। किसी झील के किनारे सहस्रों डैफोडिल्स के फूलों को झूम-झूम कर बसंतोत्सव मनाते हुए देख कर वह एकांत के चरमसुख (ब्लिस ऑफ सोलीच्यूड) से अभिभूत हो गए थे। ऐसा एकांत जिसकी आंतरिक दृष्टि मन के पटल पर उन सहस्रों डैफोडिल्स के पुष्पों की छवि को फिर से उकेर देती है, जिसे कवि ने स्थूल रूप में देखा था। उस स्मृति के आनंदातिरेक में उनका हृदय डैफोडिल्स के साथ नृत्य करने लगता है तो मानो उन फूलों की क्षणभंगुरता खत्म हो जाती है, उन्हें अमरत्व मिल जाता है।
पंजाब में भारत पाकिस्तान की सरहद पर कांटेदार तारों के दोनों तरफ मीलों तक फैले खेतों में सरसों के फूल जब सर्द हवाओं में झूम कर लहराते हैं तो बसंत का उल्लास उन कांटेदार तारों से भी बिंध कर आहत नहीं होता। वाघा बॉर्डर पर दोनों देशों के परचम जोशोखरोश के साथ रोज सुबह लहराए जाते हैं और रोज शाम ससम्मान उतारे जाते हैं। उस जोश में अनायास घुस आई कड़वाहट बसंती हवा में झूमती सरसों के बीच ज्यादा देर जीवित नहीं रह पाती। सरहद के इस तरफ राग बसंत में पंडित भीमसेन जोशी या मन्ना डे या कौशिकी चक्रवर्ती के स्वर जब गूंजते हैं तो लगता है, उनके अमर गायन की तरह सरसों के फूलों की खिलखिलाहट भी कभी कम न होगी।
उधर सरहद के उस पार बेगम मलिका पुखराज अपनी बेटी ताहिरा सय्यद के साथ गाती हैं- ‘लो फिर बसंत आई’। उनका गीत बसंत के उल्लास में फूली हुई सरसों के झूठे घमंड का जिक्र करते हुए चुटकी लेता है- ‘फूली हुई है सरसों, जैसे रहेगी बरसों’। फूलों से लदी हुई सरसों को भले बदलते मौसम की हवाएं उलट-पलट कर इस साल झुलसा दें, मलिका पुखराज और ताहिरा के स्वरों का जादू कालातीत है। उनकी आवाज का जादू सरसों के फूलों को भी सदा जवान बना कर रखेगा। इस साल मुरझाएंगे तो अगले साल मलिका पुखराज को उन्हीं की गाई हफीज जालंधरी की नज्म सुनाते हुए सरसों के ये फूल कहेंगे- ‘अभी तो मैं जवान हूं’।
