पिछले दिनों गांव जाना हुआ तब पता चला कि शहरी सभ्यता का जामा ओढे़ बहुत सारे लोग कुछ मायने में ग्रामीण इलाकों में रह रहे कई लोगों के मुकाबले कितना पीछे हैं। आमतौर पर हम उन्हें तकनीक, नए संसाधनों के इस्तेमाल और सामान्य ज्ञान में कमतर समझते हैं। मेरी यह शहरी सोच इस दौरान बहुत पीछे छूट गई। वहां मैं अपने रिश्तेदार से मिलने गई थी। मालूम हुआ कि एक गर्भवती महिला के प्रसव में सहायता के लिए वे पड़ोस में गई हैं। मैंने सोचा कि यहां दाइयों वाली प्रथा शायद आज भी जारी है। सरकार संस्थागत प्रसव का ढिंढोरा पीटती है, लेकिन जहां इसका फायदा पहुंचना चाहिए, क्या वहां सचमुच पहुंच पाता है? ऐसे में लगता है कि हमारे संसाधन व्यर्थ जा रहे हैं और सरकार ने जो इस काम के लिए लंबा-चौड़ा कार्यबल लगा रखा है, वह अपनी भूमिका से इंसाफ नहीं कर पा रहा है।

मैं वहां बैठी इन्हीं खयालों में उलझी थी कि मुन्नी मेरे लिए चाय ले आई। पिछली बार जब यहां आई थी तो मुन्नी बमुश्किल तीन साल की थी। लेकिन आज वह आठवीं कक्षा में है। उससे बातचीत की तो पता चला कि अब वह कंप्यूटर सीख रही है। मैंने उससे पूछा कि कौन सिखाता है, तो उसने बताया कि स्कूल में ही शिक्षक सिखाते हैं। मुझे थोड़ा आश्चर्य इसलिए हुआ कि स्कूल सरकारी है। सरकारी स्कूलों के बारे में आम राय छिपी नहीं है। मुन्नी ने बताया कि स्कूल में पंचायत ने अपने खर्चे से चार कंप्यूटर रखवाए हैं और उसके लिए एक शिक्षक भी रखा है। मुन्नी के पास भी कंप्यूटर देख कर मुझे थोड़ा सुखद आश्चर्य हुआ। मुन्नी के पिता किसान नहीं, बल्कि खेतिहर मजदूर हैं। इसलिए उनके लिए कंप्यूटर खरीदना एक बड़ी बात थी। लेकिन मुन्नी सहजता से बोली कि मुझे स्कॉलरशिप का कुछ पैसा मिलता है, उसमें कुछ और मिला कर यह कंप्यूटर आया है।

शहरों में जहां ढेरों संसाधनों के बीच भी बच्चे ढंग से पढ़ाई नहीं कर पाते, उनके लिए मुन्नी एक मिसाल है। असल में प्रतिभा का दीया अंधेरे में ही टिमटिमाता है। प्रकाश के आगे अंधेरा नहीं टिक पाता, यही उसकी विशेषता है। प्रतिभाएं अपना रास्ता बना लेती हैं। संसाधन उनके गुलाम हो जाते हैं। कम से कम इस घर में आकर मुझे यह साफ-साफ महसूस हुआ। मुन्नी के पिता अब भी खेतिहर मजदूर हैं, लेकिन हौसला ही नियति बनाती है। उन्होंने मुन्नी के स्कॉलरशिप में कुछ और पैसे डाल कर कंप्यूटर लेना ठीक समझा।

मुन्नी बातों-बातों में मुझसे घुल-मिल गई। उसने कंप्यूटर चालू किया तो मैंने उससे हंसते हुए मजाक में कहा कि तुम इस पर गेम खेलती होगी! मुन्नी ने गंभीरता से कहा कि इतना वक्त ही कहां मिलता है! लेकिन जितना भी वक्त मिलता हो, वह इंटरनेट भी ठीक से जानती है। यहां तक कि अपने पढ़ने की काफी सामग्री भी उसने डाउनलोड की हुई थी। उसने अपनी दिनचर्या बताई। सुबह पांच बजे वह उठ जाती है। गाय का दूध दूहने और बकरियों को चारा देने के अलावा घर के कई काम निपटाने के बाद वह स्कूल जाती है। जब वह स्कूल से लौटती है तो बिजली नहीं रहती है। शाम को वह फिर बकरी चराने निकल जाती है। सात-आठ बजे के बाद बिजली रहने पर वह कंप्यूटर पर कुछ वक्त लगा पाती है।

जाहिर है, कई तरह के अभावों से जूझने के बावजूद इतनी कम उम्र में इस लड़की में हौसला और उम्मीद से ज्यादा समझ है। खैर, मैं जब वहां से निकलने लगी तो एक और आश्चर्यजनक अनुभव हुआ। वह महिला आ गर्इं, जिनसे मैं मिलने आई थी। उन्होंने बताया कि वे एम्बुलेंस से एक गर्भवती के प्रसव के लिए अस्पताल गई थी। यों अब भी उन्हें ‘दाई’ कहा जाता है। लेकिन अब वे परंपरागत से प्रसव नहीं कराती हैं, बल्कि गर्भवती महिला को अस्पताल जाने का रास्ता बताती हैं, साथ जाती हैं।

यह सब देखने-सुनने के बाद मैंने अपनी सामाजिक भूमिका के बारे में सोचना शुरू किया तो मेरे सामने खुद के लिए कई सवाल थे। महज दसवीं पढ़ी-लिखी वह महिला मेरी स्नातकोत्तर डिग्री को आईना दिखा रही थी। सबसे बड़ी बात यह थी कि मुन्नी उसकी इकलौती संतान है। उन्होंने मुन्नी के पैदा होने के बाद दूसरे संतान की जरूरत के बारे में कहा कि एक बेटी है, उसे ही आगे बढ़ा दूं, वह काफी होगा। उस महिला का यह सोचना और उनकी दृढ़ता उस शहरी और सभ्य समाज के मुंह पर तमाचा है जहां कन्या भ्रूणहत्या जैसे अपराध सामान्य हैं और इसी वजह से पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का अनुपात लगातार गिरता जा रहा है। बेटे के मोह में न सिर्फ अजन्मी बेटियों की हत्या कर दी जाती है, बल्कि अगर किसी तरह पैदा हो गई तो उसकी जिंदगी को दोयम बना कर छोड़ दिया जाता है। मेरे सामने सवाल साफ था- अनपढ़ कौन! (सरीन शेख)