मोनिका भाम्भू कलाना

सच यह है कि जरूरत के नाम पर इसके प्रयोग ने पिछले कुछ सालों में लत का रूप ले लिया है। बड़े और महंगे स्मार्टफोन अब फैशन का प्रतीक बन चुके हैं। युवक-युवतियां आजकल आधुनिक दिखने के लिए भी इसका भिन्न-भिन्न तरीकों से इस्तेमाल करते हैं।

जगह कोई भी हो, काम का दबाव भले ही हो, कितनी ही भीड़ हो, हर स्थिति में लोग स्मार्टफोन के स्क्रीन का इस्तेमाल इस तरह करते हैं जैसे वे कोई पेशेवर हों और उन्हें इन सबके लिए मेहनताना दिया जा रहा हो। मोबाइल पर इंटरनेट चलाना ही शायद एकमात्र ऐसा काम है, जिसमें व्यक्ति पैसे और समय खर्च करने के बावजूद इसके लिए कोई मलाल नहीं रखता। बल्कि अधिकतर लोग इसे अपनी एक उपलब्धि के तौर पर भी देखते हैं, क्योंकि वे जानकारी को ही ज्ञान समझते हैं। हालांकि इसका कोई खास हासिल नहीं होता।

इसका जो सबसे बारीक असर सामने आया है, उस पर तो शायद ही किसी का ध्यान जा पाता है। मोबाइल की स्क्रीन पर दृश्यों या किसी भी सामग्री के साथ-साथ उसमें निरंतर चलने वाली आवाज के अनावश्यक मोह की वजह से न केवल सुनने और सोचने-समझने की आदत कम होती जा रही है, बल्कि इससे बाहर की सच्चाई और गंभीरता किसी को रास नहीं आती। आज जबकि फर्जी खबरों के जमाने में सच तक पहुंचना मुश्किल से और मुश्किल होता जा रहा है, लोग ठीक उसी तरह इंटरनेट पर चलने वाली वाहियात बातों पर बगैर सोचे-समझे यकीन करने लगे हैं, जिस तरह पहले किताबों में पढ़ी बात पर सहज विश्वास कर लेते थे।

यह भी एक रोचक बात है कि स्मार्टफोन रखने वाले लगभग सभी लोग (जिसमें नौजवानों का अनुपात कहीं अधिक है) खुद को इस कौशल से भरपूर समझते हैं जो स्मार्टफोन को बरतते समय चाहिए। वही लोग छोटे-छोटे व्यक्तिगत कामों जैसे- बिजली बिल या फिर आवेदन पत्र भरने आदि के लिए ई-मित्रा के चक्कर लगाते हैं। सीधा-सा मतलब यही है कि स्मार्टफोन बहुतेरे व्यक्तियों के लिए काम की चीज होने के बजाय ‘फालतू वक्त काटने का जरिया’ ही कहीं अधिक है।

इसी तकनीकी मोह के युग के साथ निजीपन का आग्रह भी कहीं न कहीं बढ़ा है। सार्वजनिक जगहों, मेलों, यात्राओं और अन्य किसी भी तरह के कार्यक्रमों में समूह के स्थान पर व्यक्तिगत होने का रुझान बढ़ा है। व्यक्ति अपनी दुनिया में दूसरों को शामिल करने में रुचि नहीं रखता। यही वजह है कि ईयर फोन का चलन भी काफी बढ़ा है। युवा निजी बातों के लिए इनका इस्तेमाल करते हैं।

लेकिन आश्चर्य है कि अक्सर यूट्यूब देखने के लिए वे भी अपने कानों पर कोई दबाव नहीं देते। व्यक्ति में खुद के प्रति जितनी सतर्कता बढ़ी है, दूसरों के प्रति उसी अनुपात में वह लापरवाह होता जा रहा है। ‘अन्य’ शायद अब सोच का हिस्सा न रहा और सहूलियतें तो सिर्फ खुद की देखी जाने का ही यहां नियम है। अजीब बात यह है कि अपनी निजता के आग्रहों के बीच दूसरों की निजता के हनन के किसी खयाल के लिए कोई जगह ही बची नहीं हैं।

एक तरह से देखें तो मोबाइल अब बीड़ी, सिगरेट के नशे की तरह हो गया है जो उपयोग करने वालों के अलावा आसपास बैठे हुए व्यक्ति को भी प्रभावित करता है, क्योंकि उनके पास ‘चयन की स्वतंत्रता’ नहीं रहती। अपने कमरे में बैठा व्यक्ति भी दूसरों द्वारा बेवजह और हर वक्त फैलाई जा रही आवाजें सुनने को बाध्य है। ऐसी आवाजें जो उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर क्षति पहुंचाती हैं। हालत यह है कि सोते-जागते कान ही बजना शुरू हो गए हैं, लेकिन असहाय होने के अलावा कोई समाधान नहीं सूझता।

आश्चर्य यह है कि मोबाइल को तेज आवाज पर सार्वजनिक स्थलों पर बजाना एक आम बात हो गई है। दूसरे की दिक्कत की तरफ न ध्यान देकर इसे अपना हक मान लिया गया है। बस, ट्रेन, पार्क, अस्पताल में हर जगह यह अनचाहा शोर है और चलाने वाला समीप बैठे व्यक्ति से अनुमति लेना तो दूर, एक बार भी उसके चेहरे की तरफ देखता तक नहीं। हर दूसरा इतना ‘अन्य’ हो गया है कि कोई झिझक भी नहीं होती और यह संस्कृति इतनी आम हो गई है कि मोबाइल के लत से दूर व्यक्ति को खाली समझा जाने लगा है।

उसे ‘आउटडेटेड’ या पिछड़ा हुआ कहने में भी कोई संकोच नहीं है। बहुत सारे लोगों की गलत आदतों के बीच कुछ अतिसंवेदनशील व्यक्तियों की आवाज और समस्या की तरफ ध्यान देने के बारे में नहीं सोचा जाता, क्योंकि ‘किन्हीं’ आवाजों से बचने के लिए ‘नई और तेज’ आवाजों से स्वयं को घेर लेना ही इस युग में हर लाइलाज मर्ज का अंतिम इलाज समझा जाता है।