प्रतिभा कटियार

रास्ता वही था, लेकिन नएपन की चादर से झांकता हुआ लग रहा था, मुस्कुराता हुआ। फूल रोज की तरह डालियों पर झूम रहे थे। उन पर सूरज की बारीक किरणें भी रोज की तरह बिखरी हुई थीं। लेकिन उस रोज उनकी मुस्कुराहट में सर्दियों की धूप की गुनगुनाहट भी तारी थी। जैसे कोई ख्वाब की खिड़की खुली और हम उसमें कूद गए हों… उस ख्वाब को कदम दर कदम जी रहे हों। जैसे किसी पेंटिंग के भीतर हमें जाने की इजाजत मिल गई हो।

हम साथ थे और खामोश थे। खामोशी हमें और करीब ले आती। जैसे-जैसे खामोशी करीब आती जाती, मौसम यों ठहर जाता, मानो उसे किसी ने ‘स्टेचू’ बोल दिया हो। खामोशी से बचने के लिए फिर हम किसी वाक्य की ओट में खुद को छिपा लेते और कदमों की रफ्तार तेज कर देते। हालांकि हमें पहुंचना कहीं नहीं था, फिर भी। हम दोनों जीवन में जूझ रहे थे और जीवन के प्रेम में आकंठ भरे थे।

अचानक उसने कहा- ‘मैंने अकेलेपन के सुर को साध लिया है। अब मुझे इसकी आदत लग गई है।’ मैंने कहना चाहा- ‘हां, मैं जानती हूं और यह तुमसे सीखना चाहती हूं।’ लेकिन मैं चुप रही। उस समय सबसे सही सुर चुप का लगा हुआ था। एक छोटा-सा वाक्य भी कारक रहा था। यह वह समय था जब स्मृतियां भी स्थगित थीं। हथेलियों पर वर्तमान का सबसे चमकीला सिक्का मुस्करा रहा था, जिसे यकीनन उम्र भर खर्च होने से बचाना है। बहुत मुश्किल दिनों में भी। मुश्किल दिनों में इस चमकीले सिक्के को हथेलियों में रख कर सोचूंगी कि इतनी भी कंगाल नहीं और उसे वापस जेब में रख लूंगी शायद।

मैंने फूलों से लाड़ में भर कर कहा कि ज्यादा मुस्कराओ मत, तब मैंने सोचा कि फूल मेरी बात मान लेंगे, लेकिन वे फूल थे… खिलखिला दिए। फिर हम दोनों पर पड़ती, हमारे साथ चलती धूप की किरणों से मैंने कहा कि ज्यादा झिलमिल मत करो, लेकिन धूप की किरणें भी शरारत से हंस पड़ीं और हमारे सिर से उतर कर कांधों पर आ बैठीं। वे कभी चेहरे पर भी गिरतीं और कभी पीठ पर सवार हो लेतीं। इसके बाद मैंने रास्तों से कहा कि और लंबे हो जाओ। रास्ते अमूमन मेरी बात मानते हैं, लेकिन उस रोज उन्होंने भी शरारत की और वे और लंबे नहीं हुए, बल्कि उन्होंने खुद को सिकोड़ लिया। इन सबकी शरारतों को देख मन मुस्करा उठा। फिर लगा कि ठीक ही हुआ। वरना इतना सारा सुख मैं भला कैसे सहेज पाती..!

एक दोस्त ने एक बार साथ चलते हुए कहा था कि पैदल साथ चलना सिर्फ साथ चलना नहीं होता है… साथ में गहरे उतरना होता है। दोस्त का कहा सबसे सुंदर अनुभूति बन कर सामने था उस रोज… चुप्पियों की गहनता में उतरे उस साथ में… अपनी संगत में चला गया। ढेर सारा स्मृति बन अंखुआने को ही था कि रास्तों ने उन्हें रोक दिया। वर्तमान के इस वक्फे में स्मृति की कोई जगह नहीं थी। साथ चलना अगर चुप्पियों की संगत पर हो तो श्रेष्ठ होता है, यह उस रोज समझ आया।

इस तरह साथ चलते हुए जो आपस में टकरा जाने के दौरान उग आए होते हैं नन्हे-नन्हे स्पर्श, वे जिंदगी की बहुत बड़ी अमानत होते हैं। ये स्पर्श ढेर सारे शोर के बीच मौन की उस नदी से होते हैं, जिनमें डुबकी लगा कर हम कभी भी तरोताजा हो सकते हैं। उन नन्हेें स्पर्शों की खुशबू जीवन को जीवन भर महकाती है… सांसों की लय को जीवन बनाती है।

आज जीवन के तमाम कोलाहल के बीच मौन की उस नदी का पानी कलकल कर रहा है। मैं अपनी अंजुरी में मौन का पानी लिए बैठी हूं। भीतर के तमाम सूखे को नमी मिल रही हो जैसे। आज की सुबह की चाय में बीते दिनों की कोई छाया चली आई है। सोचती हूं स्मृतियां न हों तो भला क्या हो जीवन। और वर्तमान में ऐसा कुछ जीया हुआ न हो तो क्या हों स्मृतियां!

मेरी सुबह की चाय में उसकी स्मृति है… उसकी सुबह में चाय के साथ कौन होगा? उस रोज के साथ चलते हुए का सारा जीया हुआ इस जिंदगी के ढेर सारे ठहरे हुए को गति दे रहा है और ढेर सारी बेवजह की भागदौड़ को ठहरने की एक जगह दे रहा है। मैं अपने भीतर चलते हुए उस जगह पहुंच चुकी हूं जहां एक पंछी मौन की नदी में अपनी चोंच डुबो कर इधर-उधर देखने लगता है और फिर से अपनी चोंच उस नदी में डुबो देता है। यह पंछी बेहद खूबसूरत है। उसकी गर्दन पर नीले रंग की धारियां हैं और उसकी चोंच लाल है। क्या यह स्मृति का पंछी है!