आदिवासी शिल्प को आज एक बड़ा बाजार हासिल है, लेकिन उसका कलाकार आज भी फाका करने की स्थिति में है। जाहिर है, हमें अपने लोक को बचाने के लिए उसे उसकी मौलिकता में ही स्वीकारना होगा। हजारों गीत, कविताएं, साहित्य, शिल्प और तमाम कलाएं नष्ट होने के कगार पर हैं। मगर उनके गुणग्राहक कहां हैं! एक विशाल भू-भाग में बोली जाने वाली हजारों बोलियां, उनका साहित्य, जो वाचिक और लिखित, दोनों हैं, उनकी कला-चेतना, प्रदर्शन कलाएं सारा कुछ मिल कर एक ऐसा लोक रचती है, जिस तक पहुंचने में अभी काफी समय लगेगा। लोकचेतना तो वेदों से भी पुरानी है, क्योंकि हमारी परंपरा में ही ज्ञान बसा हुआ है। ज्ञान, नीति-नियम, औषधियां, गीत, कथाएं, पहेलियां सब कुछ इसी ‘लोक’ का हिस्सा हैं।

आजादी के छह दशकों में जिन गांवों तक हम पीने का पानी तक नहीं पहुंचा पाए, वहां कोकाकोला और पेप्सी की बोतलें हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को मुंह चिढ़ाती दिखती हैं। गांव में हो रहे आयोजन आज लस्सी, मट्ठा और शरबत की जगह इन्हीं बोतलों के सहारे हो रहे हैं। ये बोतलें सिर्फ लोक की संस्कृति का विस्थापन नहीं हैं, बल्कि सामूहिकता का भी गला घोंटती हैं। गांव में हो रहे किसी आयोजन में कई घरों और गांवों से जमा की गई दही, सब्जी या ऐसी तमाम चीजें अब एक आदेश पर नए रूप में उपलब्ध हो जाती हैं। दरी, चादर, चारपाई, बिछौने, गद्दे और कुर्सियों के लिए अब टेंट हाउस हैं। इन चीजों की पहुंच ने कहीं न कहीं सामूहिकता की भावना को खंडित किया है।

भारतीय बाजार की यह ताकत हाल में अपने पूरे विद्रूप के साथ प्रभावी हुई है। सरकारी तंत्र के पास शायद गांव की ताकत, उसकी संपन्नता के आंकड़े न हों, लेकिन बाजार के नए बाजीगर इन्हीं गांवों में अपने लिए राह बना रहे हैं। नए विक्रेताओं को ग्रामीण भारत और लोकजीवन की सच्चाइयां जानने की ललक अकारण नहीं है। वे इन्हीं जिज्ञासाओं के माध्यम से भारत के ग्रामीण खजाने तक पहुंचना चाहते हैं। उपभोक्ता सामग्री से अटे पड़े शहर, बड़े-बड़े मॉल और बाजार अब अगर भारत के लोकजीवन में अपनी जगह तलाश रहे हैं, तो उन्हें उन्हीं मुहावरों का इस्तेमाल करना होगा, जिन्हें भारतीय लोकजीवन समझता है। विविधताओं से भरे देश में किसी संदेश का आखिरी आदमी तक पहुंच जाना साधारण नहीं होता। कंपनियां अब ऐसी रणनीति बना रही हैं, जो उनकी इस चुनौती को हल कर सकें।

चुनौती साधारण नहीं है। दरअसल, पांच लाख बहत्तर हजार गांव भर नहीं, वहां बोली जाने वाली तमाम भाषाएं और बोलियां, संस्कृति, उनकी उप-संस्कृतियां और इन सबमें रची-बसी स्थानीय लोकजीवन की भावनाएं इस प्रसंग को बेहद दुरूह बना देती हैं। यह लोकजीवन एक भारत में कई भारत के सांस लेने जैसा है। कोई भी विपणन रणनीति इस पूरे भारत को एक साथ संबोधित नहीं कर सकती। गांव में रहने वाले लोग, उनकी जरूरतें, खरीद और उपभोग के उनके तरीके बेहद अलग-अलग हैं। शहरी बाजार ने जिस तरह के तरीकों से अपना विस्तार किया, वे फार्मूले इस बाजार पर लागू नहीं किए जा सकते। शहरी बाजार की हदें जहां खत्म होती हैं, क्या भारतीय ग्रामीण बाजार वहीं से शुरू होता है, इसे भी देखना जरूरी है। ग्रामीण और शहरी भारत के स्वभाव, संवाद, भाषा और शैली में जमीन-आसमान के फर्क हैं। देश के ‘मैनेजमेंट गुरु’ इन्हीं विविधताओं को लेकर शोधरत हैं! यह रास्ता भारतीय बाजार के अश्वमेध जैसा कठिन संकल्प है, जहां पग-पग पर चुनौतियां और बाधाएं हैं।

भारत के लोकजीवन में सालों के बाद झांकने की यह कोशिश भारतीय बाजार के विस्तारवाद के बहाने हो रही है। इसके सुफल प्राप्त करने की कोशिशें हमें तेज कर देनी चाहिए, क्योंकि किसी भी इलाके में बाजार का जाना वहां की प्रवृत्तियों में बदलाव लाता है। वहां सूचना और संचार की शक्तियां भी सक्रिय होती हैं, क्योंकि इन्हीं के सहारे बाजार अपने संदेश लोगों तक पहुंचा सकता है। जाहिर है, यह विस्तारवाद सिर्फ बाजार का नहीं होगा, सूचनाओं और शिक्षा का भी होगा। अपनी बाजारवादी आकांक्षाओं के बावजूद वहां काम करने वाला मीडिया कुछ प्रतिशत ही सही, सामाजिक सरोकारों का खयाल जरूर रखेगा, ऐसे में गांवों में सरकार, बाजार और मीडिया तीन तरह की शक्तियों का समुच्चय होगा, जो अगर जनता में जागरूकता के थोड़े भी प्रश्न जगा सका, तो शायद ग्रामीण भारत का चेहरा बहुत बदला हुआ होगा।

भारत के गांव और वहां रहने वाले किसान बेहद खराब हालात के शिकार हैं। उनकी जमीन तरह-तरह से हथिया कर उन्हें भूमिहीन बनाने के प्रयास चल रहे हैं। इससे एक अलग तरह का असंतोष भी सामाजिक जीवन में दिखने शुरू हो गए हैं। भारतीय बाजार के नियंता इन परिस्थितियों का विचार कर अगर मानवीय चेहरा लेकर जाते हैं, तो शायद उनकी सफलता की दर कई गुना हो सकती है। फिलहाल तो आने वाले दिनों में इसी ग्रामीण बाजार पर कब्जे के कई रोचक दृश्य उपस्थित होने वाले हैं, जिसमें कितना भला होगा और कितना बुरा, इसका आकलन होना अभी बाकी है!