हाल ही में महाराष्ट्र के शिगनापुर शनि मंदिर में एक महिला द्वारा शनि देव की पूजा करने से काफी विवाद खड़ा हो गया। आश्चर्य है कि जिन सत्ता संस्थानों से देश चलता है, वहां न कोई अफसोस दिखा, न दुख प्रकट किया गया। शिगनापुर में महिला द्वारा शनि देव पर तेल चढ़ाने के पक्ष और विरोध में आवाज उठ रही हैं, पर इसका मुख्य श्रेय सोशल मीडिया और निजी टीवी चैनलों को जाता है। विडंबना यह भी है कि जो समाचार टीवी पर देखा या दिखाया जाता है, उस पर तो कई-कई दिन तक चर्चा होगी, लेकिन छोटे-बड़े परदे से दूर जो दुर्व्यवहार और भेदभाव महिला होने के कारण इस देश की लाखों महिलाओं को सहना पड़ता है, उसकी ओर देश के कर्णधारों द्वारा जानबूझ कर ध्यान नहीं दिया जाता।
बहरहाल, शनि मंदिर के पंडितों, पुजारियों और प्रबंध समिति ने महिला द्वारा पूजा करके ‘अपवित्र’ की गई मूर्ति को पवित्र करने का एक रास्ता निकाला, यानी दूध से मूर्ति को धोया गया। यह जानकारी नहीं मिली कि दूध भैंस का लिया गया या गाय का। मगर गाय और भैंस दोनों ही ‘नर’ यानी ‘पुरुष’ पशु नहीं हैं। और जब एक ‘मादा’ मनुष्य से मूर्ति ‘अपवित्र’ हो गई, तो फिर ‘मादा’ पशु के दूध से ‘पवित्र’ कैसे हो गई? क्या इस दोहरेपन पर विचार किया जाता है? लेकिन दुराग्रह और अंध आस्था सोचने कहां देती है!
शनि मंदिर में ताजा घटना के संदर्भ से महिलाओं द्वारा पूजा के विरोध में परंपरा और हिंदू धर्म के नाम पर तर्क दिए जा रहे हैं। जिस धर्म में राम सीता के बिना कहीं नहीं दिखते, शंकर गौरी के साथ हर जगह विराजमान होते हैं, अर्द्धनारीश्वर का उदाहरण है, दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती के हर अवतार की दिन-रात बेटियों से ज्यादा बेटे पूजा करते हैं, वहां यह कह देना केवल लकीर की फकीरी है कि महिला शनि पूजा नहीं कर सकती। यह अंधविश्वासों और रूढ़ियों में डूबे हुए लोगों की जड़ मानसिकता है।
जो लोग समाज, परंपरा और धर्म की दुहाई देते हैं, उनसे मेरा सीधा सवाल है कि चार सौ वर्ष पहले तो इस देश की बेटियों को पति की मृत्यु के बाद उसी की चिता में जला कर मार डाला जाता था और उसे ‘सती’ का नाम देकर महिमामंडित किया जाता था। विधवा विवाह वर्जित था। विदेश यात्रा करने वालों को जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता था। बारह वर्ष से कम आयु की बेटी की शादी करना ही धर्म माना जाता था। बेटियां ही नहीं, बेटों को भी किशोरावस्था में ही गृहस्थ बना देते थे। लड़कियों को शिक्षा देना तो एक तरह से वर्जित विषय था। यहां तक कि रेलगाड़ी में भी लोग नहीं चढ़ते थे और बैलगाड़ियों से गुजारा करते थे। अगर चार सौ वर्ष पहले वाली ये परंपराएं सही हैं तो अब वह सब कुछ क्यों छोड़ दिया गया? धर्म के ऐसे व्याख्याकारों को यह भी बताना चाहिए कि यहां तो अंग्रेजों की तरह पैंट-कोट पहनना भी धर्म-विरोधी काम माना जाता था! अगर हम समय के साथ बदले हैं तो महिलाओं के विरुद्ध पाले जा रहे इन अंधविश्वासों से भी मुक्ति जरूरी है। वरना हमारे खुद को सभ्य मानने पर सवाल उठेंगे।
मुझे भी 2008 में जब हिमाचल के एक मंदिर में प्रवेश करने से रोका गया, तब मैंने पंजाब और हिमाचल की सरकारों को बार-बार याद दिलाया था कि संविधान कहता है लैंगिक आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा, तो धर्म के नाम पर संविधान की धज्जियां क्यों उड़ाई जा रही हैं! मुझे शिकायत शंकराचार्य से भी है, जो कितने भी बड़े अत्याचार पर मौन ही रहते हैं। अफसोस उन महिलाओं के रुख पर भी है, जो इस तरह के भेदभाव और अत्याचार को सहती हैं। जिन मंदिरों में महिलाओं का प्रवेश मंदिर या देव मूर्ति को ‘अपवित्र’ कर देता है, वहां जाकर कीर्तन करने, लंगर पकाने और दूर-दूर से दर्शन करने के लिए वे क्यों मजबूर रहती हैं?
राष्ट्रीय और राज्य के महिला आयोग को भी सोचना चाहिए कि उन्होंने उस महिला के पक्ष में न सही, उसके साथ जो भेदभाव हुआ, उसके विरोध में कोई आवाज क्यों नहीं उठाई! समाज की आधी आबादी के अपमान और उसके साथ भेदभाव से जुड़ा यह सवाल देश की संसद के लिए क्यों बेमानी या महत्त्वहीन रहा? धर्मगुरु माने जाने वाले लोग इस तरह के भेदभाव और महिलाओं पर हो रहे मानसिक अत्याचार को मौन स्वीकृति क्यों दे रहे हैं? जो लोग मानते हैं कि महिलाओं द्वारा पूजा से मंदिर और देवता ‘अपवित्र’ हो गए, उनके सोचने के स्तर के बारे में क्या कहा जाए! अगर कहीं देवता हैं, तो क्या ऐसा हो सकता है कि उनका स्थान केवल पुरुषों की जन्मकुंडली में हो? समाज को यह दुराग्रह भी वैसे ही दूर करना होगा, जैसे सती प्रथा और बाल विवाह जैसी कई कुरीतियों को कानूनी तौर पर प्रतिबंधित किया गया। (लक्ष्मीकांता चावला)