हाल ही में ट्यूशन की तलाश में मैं एक निजी स्कूल के प्रबंधक से मिला तो उन्होंने पूछा कि ट्यूशन से कितना कमा लोगे! फिर देश के कई नामी अमीरों के धनी होने के ‘राज’ से परदा उठाते हुए वे मुझे नेटवर्क मार्केटिंग के बारे में समझाने लगे। उन्होंने बताया कि स्कूल के धंधे में अब कुछ नहीं रखा है, मार्केटिंग के धंधे में ज्यादा मुनाफा है। यह स्थिति उन संस्थाओं की है, जिन पर भविष्य के नागरिकों के निर्माण की जिम्मेदारी है। मात्र मुनाफे के लिए चल रहे इन स्कूलों को व्यापारी चला रहे हैं जो इन संस्थाओं को व्यावसायिक प्रतिष्ठान और शिक्षकों को केवल कर्मचारी समझते हैं। मंजन, साबुन या कार की तरह शिक्षा भी एक बिकाऊ माल हो गई है, जिसे बाजार में अपनी हैसियत के हिसाब से लोग खरीदते हैं, यह बात तो काफी पहले तय हो चुकी थी। जिसके पास जितना ज्यादा पैसा होगा, वह उतनी बेहतर शिक्षा खरीदेगा, जिनके पास नहीं होगी, उनके लिए स्कूलों के दरवाजे बंद होंगे। अब शहरों के अलावा गांवों में भी आम लोगों के बच्चों की भारी संख्या प्राइवेट स्कूलों में जा रही है, जहां न तो शिक्षा का कोई मानक है और न ही शिक्षकों की योग्यता का। प्रबंधन न्यनूतम मजदूरी से भी कम वेतन पर तोतारटंत कराने और बच्चों से कुछ-कुछ कराते रहने के लिए शिक्षक नियुक्त करता है। बहुत कम स्कूलों में सभी विषयों के शिक्षकों की नियुक्ति होती है। कई बार दो-तीन कक्षाओं के विद्यार्थियों को साथ में एक ही शिक्षक द्वारा पढ़ा दिया जाता है। ज्यादातर निजी घरों में बने स्कूलों में पीने के पानी और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं होतीं। लेकिन फीस जमा करने में देरी होने पर कमरे में बंद करना, धूप में खड़ा करना और धमका कर बच्चों को पीटना यहां आम है।
सरकारी स्कूलों की दुर्दशा से अपरिचित लोग सवाल पूछ सकते हैं कि इतनी भयंकर स्थिति के बावजूद प्राइवेट स्कूलों में बच्चों और ऐसे स्कूलों की संख्या क्यों बढ़ रही है। सच्चाई यही है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षक जाते ही नहीं। अगर जाते भी हैं तो बच्चों को पढ़ाने के बजाय किसी तरह अपना वक्त काटते हैं। सरकार, तथाकथित जनप्रतिनिधियों और अफसरों को इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के भविष्य की कितनी चिंता है, यह इसी बात से समझा जा सकता है कि अध्यापकों पर बच्चों को पढ़ाने से ज्यादा जनगणना या इसी तरह के दूसरे कई सरकारी कार्यक्रमों को पूरा कराने का दबाव होता है। समाज में इन स्कूलों के प्रति लोगों का नजरिया यह है कि जिनके बच्चे इन विद्यालयों में पढ़ते हैं, उन्हें समाज में आर्थिक और मानसिक तौर पर पिछड़ा हुआ समझा जाता है। इसीलिए गरीब अभिभावक भी यथासंभव अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजते हैं।
लेकिन निजी स्कूलों के भीतर की तस्वीर कुछ विचित्र है। एक निजी स्कूल में पढ़ाने वाली एक मित्र ने बताया कि स्कूल में छुट्टियां चल रही हैं, लेकिन सभी शिक्षिकाओं को रोज स्कूल जाना पड़ता है और पूरे समय वहीं रहना पड़ता है। काम के नाम पर उन्हें स्कूल की साज-सज्जा के लिए चित्र बनाने को कहा जाता है और प्रबंधन हर कक्षा में लगे कैमरों से उन पर नजर रखता है। ढाई से पांच हजार तक वेतन पाने वाले इन शिक्षकों से गरमी की छुट्टियों में भी काफी समय तक ऐसे ही काम लिया जाता है। हालांकि ऐसा नहीं कि हमारे देश के सभी स्कूल ऐसे ही हैं। ऐसे भी स्कूल हैं जहां शिक्षकों को अच्छी-खासी तनख्वाह मिलती है। बच्चों को वातानुकूलित स्मार्ट कक्षाओं में आधुनिक तकनीक और वैज्ञानिक प्रणाली से पढ़ाया जाता है। तैराकी और घुड़सवारी सहित सभी तरह के खेलों की सुविधाएं उपलब्ध होती हैं। संगीत और कला के विशेष कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। जाहिर है, यहां केवल बहुत ज्यादा आर्थिक हैसियत वाले परिवारों के बच्चे पढ़ते हैं और यही बड़े होकर ऊंचे पदों तक पहुंचते हैं या डॉक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिक बनते हैं।
सच तो यह है कि सरकारी विद्यालयों की दुर्दशा और शिक्षा के बाजारीकरण की जिम्मेदारी सरकार पर आती है। शायद इस बात का इंतजाम किया जा रहा है कि गरीबों के बच्चे केवल इतना ही पढ़ें कि फैक्ट्रियों को मजदूर और क्लर्क मिलते रहें। आज बच्चों की शिक्षा ही नहीं, उनका भविष्य भी पूरी तरह उनके अभिभावकों की आर्थिक क्षमता पर निर्भर हो गया है। नतीजा यह है कि देश के तीन-चौथाई बच्चों का भविष्य अंधेरे में है। हमारे देश के शासक जिस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, वहां ये हालात अप्रत्याशित कतई नहीं। शिक्षा पर हावी बाजार और ज्यादा बदतर हालात की चेतावनी दे रहा है।