एकता कानूनगो बक्षी
भजन मंडली से लेकर, डीजे पार्टी तक हम हर सांस्कृतिक, पारिवारिक, राजनीतिक कार्यक्रमों में घर बैठे ही सम्मिलित किए जा सकते हैं। भले कल हमारा इम्तिहान हो, हम बीमार हों, दफ्तर का काम हो, यात्रा के बाद थकान हो, तकनीक में आई क्रांति के जरिए अब हम एक बहुत बड़े परिवार का हिस्सा बन गए हैं, जहां औपचारिकता, विनम्रता की जरा भी गुंजाइश नहीं बची है। अनुरोध की जगह थोपना और हावी होना जीवन क्रम में शामिल हो गया है। अभिव्यक्ति के लिए संचार भाषा का एक यह अलग तौर-तरीका क्या जीवन में कुछ अस्वाभाविक खलल नहीं डाल रहा?
अपनी बात, विचार एक दूसरे तक पहुंचाने का सहज माध्यम बनती भाषाएं बहुत खूबसूरत और रोचक भी होती हैं। हर भाषा में क्षेत्रीय शब्दों का समावेश और हर क्षेत्र में उसे बोलने का अपना अलग तेवर, अलग शैली। भाषाओं का कैनवास बहुत विस्तृत है। पानी की तरह ही हर परिस्थिति में ढलकर वह अपना काम करना जानती हैं।
इसीलिए विचार साझा करने के लिए कई बार उपयुक्त शब्दों की कमी के बावजूद भाव-भंगिमाओं या देह भाषा से भी संवाद हो ही जाता है। आदिकाल में जब शाब्दिक भाषा का विकास नहीं हुआ था, तब के संघर्षों, मान्यताओं और जीवन की कहानियां हमें भित्ति चित्रों, आकृतियों के माध्यम से प्राप्त होती रही हैं।
कभी-कभी ऐसा लगता है मानो किसी टेपरिकार्डर की तरह बेहद उत्कृष्ट ध्वनि नियंत्रण यंत्र हमारे भीतर उपस्थित है, जो अपने आप इंगित कर देता है कि कब हमें आवाज ऊंची करने की जरूरत है और कब हमारे मद्धिम स्वर से ही काम चल जाएगा। विविध भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए हमारी आवाज का उतार-चढ़ाव, तीव्रता और गति, यहां तक कि मौन की अवस्था भी इसी आंतरिक प्रणाली के दायरे में आती है। हम जितने अधिक विवेकशील और संतुलित होते हैं, उतना ही सहज और सटीक यह मानवीय यंत्र काम करता है।
प्रकृति की खामोशी, उसकी हर हलचल सृजनात्मकता से भरी होती है जो प्रेरित करती है। वह चाहे हवा की सरसराहट हो, झरनों की कलकल या बियाबान की खामोशी, भाषा के आरोह-अवरोह का अद्भुत व्याकरण और अभिव्यक्ति की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। प्रकृति किसी विशेष अवसर पर ही अपनी आवाज ऊंची करती है। बादल और बिजली की गड़गड़ाहट, कड़कड़ाहट, तेज आंधी, तूफान, नदी तालाबों में उफान, ज्वारभाटा, पत्तों पर गिरती रिमझिम बारिश की बूंदें तो कभी सूखे पत्तों की सरसराहट।
जीव-जंतु भी आपस में सहज रूप से स्वाभाविक स्वर में संवाद करते हुए नजर आते हैं। जब जरूरी होता है, तभी वे अपनी आवाज को बुलंद करते हैं। दुखद है कि हम एक ऐसे समय से गुजर रहें हैं जहां हर व्यक्ति के पास अपनी बात कहने के कई माध्यम तो उपलब्ध है पर विवेकशीलता की कमी भी है।
कई बार लगता है कि इसे ‘लाउडस्पीकर युग’ कहा जाए! हमारी आवाज दबी हुई हो या ऊंची, हमारे विषय महत्त्वपूर्ण हों या अप्रासंगिक, हमें कोई सुनना, पढ़ना चाहता हो या नहीं, हम अपनी बात को एक बार व्यक्त करें, हमें कोई नहीं रोक सकता है। हमारी भाषा सुंदर, स्वस्थ और अर्थपूर्ण हो या न हो, पर बुलंद हुई है। हर कोई लगभग चीखता हुआ लगता है। भीतर से हम भले अधिक बुद्धिमान, कर्मठ और समर्पित हों, लेकिन इस अविवेकी शोर से इसका कोई खास संबंध नहीं दिखाई देता।
कुछ समय पहले तक अपने बारे में बहुत अधिक बात करना अच्छा नहीं माना जाता था। कहा जाता था कि अच्छा काम अपने आप प्रसिद्धि पाता है। पर अब मानो केवल एक सूत्र रह गया है- जो दिखता है, वह बिकता है। अपने आप को रेखांकित करने की ललक से उपजी जानकारियों के इस शोर में कई आवश्यक, महत्त्वपूर्ण आवाजें गुम-सी हो जाती हैं।
कुछ समय पहले एक खबर आई थी कि एक लोक कलाकार अपनी कला को आम लोगों तक पहुंचा नहीं पा रहे, क्योंकि उन्हें अपना वीडियो इंटरनेट पर डालने नहीं आता। खुद से थोड़ा ऊपर उठकर ऐसे कलाकारों की मदद करना, उन्हें भी अपनी कला को प्रदर्शित करने का मौका देना, क्या यह हमारी स्वस्थ मानिसकता का परिचायक नहीं होगा।
हमें इस असंतुलित मानसिक स्थिति से खुद को बचाना चाहिए। यह शोर, हड़बड़ाहट स्वाभाविक नहीं है। रचनात्मक बहस, विचार-विमर्श में भी स्वर मद्धिम ही होते हैं। तर्कहीन, क्रोध से उपजी निरर्थक चर्चा में ही स्वर ऊंचे होते हैं। सुमधुर संगीत को सुनते हुए हम कई वाद्य यंत्रों की ध्वनियों और स्वर के सुंदर मिलन को महसूस करते हैं। जहां संतुलन, आपसी समझ है, वहां संगीत है, माधुर्य है।
हम जिस दिशा में खुद को ले जा रहे हैं, इसके अंत में हमारे पास कुछ भी ठोस नहीं बचेगा। हमारी उपलब्धि बस देखने-दिखाने, मनवाने तक ही सीमित रह जाएगी। हम केवल शोर बनकर रह जाना चाहेंगे या हमारे संवाद, संप्रेषण और अभिव्यक्ति में भाषाई विवेक के माधुर्य से जीवन में सुबह का कलरव भरना चाहेंगे?