पल्लवी विनोद
जब हमें लगता है कि आपने जीवन को बहुत देख परख लिया, तभी जीवन का एक नया पहलू हमारे समक्ष हाजिर हो जाता है। जो पहले से सीखा और पढ़ा होता है, उसके ठीक विपरीत एक नया अध्याय हमारे पाठ्यक्रम में जुड़ जाता है। हम कुछ समय के लिए पसोपेश की अवस्था में होते हैं कि जो अब तक समझा, सोचा और कहा, वह क्या था।
इस सच को स्वीकार करने में कुछ समय तो लगता ही है, लेकिन यकीन मानिए, इस परिवर्तित दृष्टिकोण ने आपके व्यक्तित्व को और तराश दिया है। जब दुख आता है तो अपने साथ और भी बहुत सारे भाव लेकर आता है। मसलन निराशा, क्रोध और अपेक्षाएं। जब दुख हमको अंदर से तोड़ता है तो हमारे व्यक्तित्व का कुछ हिस्सा भी टूट जाता है।
कुछ समय तक हम वह नहीं रह जाते जो अब तक थे। प्रचंड आशावादी व्यक्ति भी किसी अपने को अचानक खोकर निराशा की खाई में गिर जाता है। अज्ञेय की एक पंक्ति है- ‘दुख सबको मांजता है और चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने, लेकिन जिन्हें यह मांजता है, उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।’
मांजने और दुख में खुद को डुबा देने के बीच एक समयांतराल होता है जो हर व्यक्ति के लिए अलग है। लेकिन जब दुख हमको मांज देता है, तब हमारे अंदर क्षमा का भाव प्रदीप्त हो जाता है। दुख बीतने की प्रक्रिया में हमको कष्ट पहुंचाने वाला व्यक्ति भी हमें निर्दोष लगने लगता है। हम उन कांटों को भी अनदेखा कर देते हैं, जिन्होंने उस सफर में हमको लहूलुहान कर दिया था। हम उस व्यक्ति के पक्ष को भी समझने लगते हैं, जिसने कभी हमारा पक्ष नहीं समझा था।
मानव प्रकृति प्रदत्त स्वभाव के वशीभूत ही आचरण करता है। आसपास का परिवेश, शिक्षा और संस्कार हमारे स्वभाव में थोड़ा बहुत परिवर्तन तो ला सकते हैं, लेकिन पूरी तरह नहीं बदल सकते। लेकिन हम अपने से भिन्न स्वभाव को अक्सर सामने वाले की कमी समझ लेते हैं और अगर वह छोटा है तो बार-बार उसका ध्यान उसकी कमियों की तरफ ले जाते हैं। इस तरह हम भूल जाते हैं, इंसान खुद कमियों का पुलिंदा है।
हमारी सोच पर स्वभाव और परिस्थितियों का अलिखित नियंत्रण होता है। कभी-कभी हम अपनी ही दी हुई प्रतिक्रियाओं से चकित हो जाते हैं। जैसे एक मित्र अपनी मां की मृत्यु के दो दिन बाद ही हुई अपनी सास की मृत्यु पर अपने ससुराल आ गर्इं। फिर उन्होंने बहुत मजबूती के साथ अपने पूरे परिवार को संभाल लिया। अब वे कहती हैं कि उनकी मां ने भी अपने पिता की मृत्यु के तुरंत बाद अपनी सास यानी मित्र की दादी की बीमारी में ऐसी ही मजबूती दिखाई थी। बिना विचलित हुए पूरे घर और उसकी दादी की देखभाल की थी। यह बात उनके अवचेतन में थी। शायद इसीलिए वे भी इस तरह का आचरण कर पाईं।
क्या हमने कभी महसूस किया है कि घर का कोई कीमती सामान हमसे टूट जाए तो हमें उतना गुस्सा नहीं आता, जितना किसी और से टूट जाने पर आता है। जब हमारा कोई मसखरा दोस्त खुद का मजाक बनाकर हंसाता है तो हम ठहाके लगाते हैं, लेकिन अगर वहीं वह हमारा मजाक बना कर हंसाए तो हमें उतनी हंसी नहीं आएगी या हो सकता है हमें बुरा भी लग जाए। इंसान खुद के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनशील होता है।
यह संवेदनशीलता विषम परिस्थितियों में और बढ़ जाती है। खुद को शीर्ष पर रखने वाला मानव अंदर से बेहद कमजोर होता है। अक्सर वह संभलने के लिए किसी का सहारा ढूंढ़ता है पर भूल जाता है कि जिसे उसने सहारे के लिए चुना है, क्या वह इतना मजबूत है कि टेक लगाने से वह बिना लड़खड़ाए हमें संभाल ले?
हमें इस बात को समझना होगा कि सामने वाला इंसान हमारे अनुसार नहीं होता। हो सकता है, उसके जीवन में बहुत सी परेशानियां हों, लेकिन वह उन्हें व्यक्त न करता हो। जैसे हमारा कोई मित्र हमारे सामने कभी व्यक्त न करे कि उसके पास धन की कमी है और हमने उसी से पैसे मांग लिए। जाहिर है, वह हमें नहीं दे पाएगा और हमारी नजरों से उतर जाएगा।
संभव है कि फिर हमारा मित्रता से भी विश्वास हट जाए। यह दुनिया ऐसे ही समीकरणों से अच्छी और बुरी बन जाती है। हमको मिलने वाले अनुभव ही इसकी शक्ल बनाते हैं। अगर हमने अपने जीवन में सिर्फ झाड़ियां देखी हों तो हम फूलों से भरे बगीचे का चित्र भी संशय की नजर से ही देखेंगे। दूसरी तरफ फूलों की घाटियों में रहने वाले कंटीली झाड़ियों में रहने वालों का खुरदुरापन नहीं समझ पाएंगे।
कितना अच्छा होता कि दोनों तरफ झाडियां और फूल बराबर-बराबर बांट दिए जाते! पर ऐसा संभव नहीं है। इस दशा में हमें अपनी समझ को ही विकसित करना पड़ेगा। इसलिए जब कोई पूछता है कि क्या वाकई मुहब्बत जैसी कोई चीज होती है, तो मन उसके लिए दुआ करता है कि उसे सच्ची मुहब्बत मिले। जब हमारे दिल में प्रेम का अतिक्रमण होता है, नकारात्मकता अपने आप दरवाजे से बाहर निकल जाती है।