जनतंत्र सरकार की एक पद्धति, शासन का एक प्रकार और एक सामाजिक व्यवस्था के इतर भी बहुत कुछ है। लोकतांत्रिक व्यवस्था की अधिकतम सफलता के लिए अधिक से अधिक जनसहभागिता सुनिश्चित किया जाना अनिवार्य पहलू है। मताधिकार के तहत भारत के हर वयस्क नागरिक को बिना किसी भेदभाव के मत देने और प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार है। अवसरों की समान उपलब्धता किसी भी स्तर पर बाधित न हो, इस बात का पूरा ध्यान हमारे संविधान में रखा गया है। देश की संसद से लेकर गांव की पंचायत तक को वैधानिकता प्रदान करते हुए सभी नागरिकों की समान हिस्सेदारी सुनिश्चित करने की कोशिश की जाती रही है। हमारा संविधान आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक आदि स्तरों पर हर प्रकार की असमानता को न सिर्फ नकारता है, बल्कि उसे समाप्त करने की गारंटी भी देता है। लेकिन क्या ऐसे कुछ विशेष संवैधानिक उपचारों के जरिए एक बड़े तबके को इन अधिकारों से वंचित कर देना लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन नहीं होगा? जबकि इन कुछ शर्तों के रूप में ईजाद किए गए मानकों की पूर्ति न कर पाने में समाज के उस समूह का दोष न हो!
हाल में ही हरियाणा सरकार द्वारा लाए गए पंचायती राज (संशोधन) अधिनियम, 2015 के अनुसार पंचायत के किसी भी पद के उम्मीदवारों को आरक्षित श्रेणी के अनुसार स्कूली शिक्षा यानी पांचवीं, आठवीं और दसवीं पास होना अनिवार्य करने, हरेक उम्मीदवार के घर में शौचालय होने जैसी तमाम शर्तें थोप दी गई हैं। संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली के मद्देनजर ऐसे बदलाव की जमीनी तहकीकात करना जरूरी हो जाता है। इस संवैधानिक उपचार के बाद राजनीति की प्राथमिक शाला में पहुंचने से पहले उम्मीदवारों को जिन कसौटियों से गुजरना पड़ेगा उससे साफ लगता है कि लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण का प्रवेश द्वार ही अब आबादी के उन तमाम लोगों के लिए बंद हो जाएगा, जो महज सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक परिस्थितियों या समाज में व्याप्त जाति और जेंडर की जटिलताओं की जकड़नों के चलते उन कसौटियों पर खरा नहीं उतर पाए।
आजादी के छह दशक के बाद भी विभिन्न सरकारी-गैरसरकारी कामों के लिए चालीस प्रतिशत से अधिक जनता दस्तखत की जगह अपना अंगूठा आगे कर देती है। इसमें किसका दोष है? देश में शिक्षा की स्थिति कोई छिपी हुई बात नहीं है। प्राथमिक शिक्षा की हालत तो और भी दयनीय है। हरियाणा में 2011 की जनसंख्या के आंकड़ों के अनुसार मात्र पैंसठ प्रतिशत महिलाएं साक्षर हैं। इसमें वे भी शामिल हैं, जो महज अपना हस्ताक्षर कर पाती हैं। आंकड़े जो भी हों, पर क्या यह जनतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल है? इस मसले पर शीर्ष अदालत ने सरकार के पक्ष में फैसला देते हुए कहा कि इससे संविधान का उल्लंघन नहीं हुआ है।
जनप्रतिनिधियों का शिक्षित होना उनके कर्तव्यों के निर्वाह में सहायक होगा। शौचालय की अनिवार्यता, बैंक ऋण, बिजली बिल आदि मुद्दों पर भी फैसला सरकार के पक्ष में ही रहा। आदर्श स्थिति के रूप में देखा जाए तो ये बातें ठीक लगती हैं। लेकिन सरकार को अपनी नाकामी को नजरअंदाज कर सारा दोष जनता के मत्थे मढ़ देना कहां तक न्यायसंगत है! मजेदार यह है कि शिक्षा का अधिकार कानून आजादी के पचास साल बाद लागू हो पाता है, जबकि उसके एक दशक के भीतर ही हम पंचायतों में शैक्षिक योग्यता की अनिवार्यता के नियम लागू करने लगते हैं। आखिर कैसे मान लिया जाए कि इतने दिनों में हरेक नागरिक पांचवीं, आठवीं कक्षा पास हो ही गया होगा। जिन्हें औपचारिक शिक्षा का मौका नहीं मिला, वे पहले ही राज्य की नाकामी से पीड़ित हैं। ऐसे में उन्हें लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित करना किसी मायने में तर्कसंगत नहीं लगता।
हरियाणा की तर्ज पर राजस्थान में भी पंचायत स्तर पर उम्मीदवारों की न्यूनतम शैक्षिक योग्यता और शौचालय की अनिवार्यता जैसी पहल पर पूर्व चुनाव आयुक्त जेएम लिंग्दोह और एसवाई कुरैशी समेत कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने यह कह कर विरोध जताया था कि इससे ग्रामीण आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपने लोकतांत्रिक अधिकार से वंचित हो जाएगा। जनप्रतिनिधियों की न्यूनतम शैक्षिक योग्यता के सवाल पर संविधान निर्माण के दौरान भी खूब चर्चा हुई थी। मगर संविधान सभा ने हर व्यक्ति की उम्मीदवारी के अधिकार को ध्यान में रखते हुए संविधान को ऐसी बाधाओं से मुक्त रखा।
संविधान संशोधन की व्यवस्था भारतीय संविधान की जीवटता का परिचायक है, पर ऐसे अपरिपक्व और सतही संशोधन जिनसे लोकतंत्र का विस्तार होने के बजाय संकुचन हो, अप्रासांगिक हैं। संसदीय प्रणाली के अन्य स्तरों पर ऐसी न्यूनतम शैक्षिक योग्यता की बाध्यता नहीं होने के बावजूद सबसे प्राथमिक स्तर पर ही ऐसा क्यों? निकट भविष्य में हरियाणा की तर्ज पर अगर अन्य राज्य भी पंचायत चुनाव में ऐसे नियम लागू कर देंगे तो लोकतंत्र की मूल संकल्पना ही बाधित हो सकती है। ऐसे इस प्रावधान से सबसे अधिक गरीब, दलित, पिछड़े वर्ग के लोग और महिलाएं पंचायती राज संस्थाओं से बाहर होंगे। पंचायतों को राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों के अंतर्गत रखे जाने का दार्शनिक पहलू शायद यही रहा होगा कि पंचायतें विकेंद्रीकरण का सशक्त माध्यम बन सकती हैं और इसके क्रियान्वयन का उत्तरदायित्व इसीलिए राज्य को सौंपा गया। पर क्या ऐसे संवैधानिक बदलाव से यह सब संभव हो पाएगा?
