विलास जोशी

किसी ने सच कहा है कि स्वर्ग कहीं और नहीं, बचपन के आसपास ही है। बचपन हर गम से बेगाना होता है। बचपन यानी लड़कपन के दिन। बचपन में किसी से किसी के प्रति ईर्ष्या नहीं होती। जब कभी मुझे अपने बचपन के दिन याद आते हैं तो मैं उसमें खो जाता हूं। बरसात के मौसम में मैं अपने घर की खिड़की के पास बैठ कर बारिश का आनंद लेता था। हाथ में किताब लेकर कभी बरसात की गिरती बूंदें देखता तो कभी किताब में नजरें टिका कर चार पंक्तियां पढ़ता। फिर बरसात में खिड़की के पास बैठ कर पढ़ना किसे अच्छा नहीं लगता! अब इतने दिनों बाद लगता है कि यह भी एक ‘नाद’ है… बरसते पानी में बूंदों का नाद।

दरअसल, मेरा बचपन एक छोटे-से कस्बे में बीता। बचपन को याद करने वाला कोई भी कल्पना कर सकता है कि बरसते पानी में स्कूल जाने पर कितनी मुश्किल का सामना करना पड़ता है। मेरे छुटपन में एक सुबह मूसलाधार बरसात हो रही थी। हमारे कस्बे की गलियों में घुटने तक पानी भर गया था। बाबा ने मुझे और मेरी छोटी बहन से कहा था कि तुम लोग आज स्कूल मत आना। बाबा अध्यापक थे, इसलिए उन्हें स्कूल जाना जरूरी था। जबकि स्कूल में नागा करने की इच्छा हम दोनों भाई-बहन की भी नहीं थी। इसलिए कुछ देर बाद हम दोनों भी स्कूल जाने के लिए घर से निकल पड़े। तब स्कूल जाने के लिए स्कूल बस या रिक्शा की व्यवस्था नहीं थी। हम दोनों घुटने भर पानी के बीच चलते हुए आगे बढ़ रहे थे। कुछ ही आगे बढ़े थे कि मेरा पैर फिसल गया और बस्ता पानी में गिर गया। चूंकि मेरा हाथ चचेरी बहन ने पकड़ रखा था, इसलिए वह भी पानी में गिर गई। फिर क्या था, हम दोनों गीले बस्ते को सीने से लगा कर जोर-जोर से रोने लगे और घर वापस आ गए।

मुझे बचपन से ही फूलों से बहुत प्यार रहा है। फिर बरसात शुरू होते ही नए-नए किस्म के फूलों के पौधे लगाना मुझे बहुत अच्छा लगता था। मुझे याद है कि एक बार मैं किसी दूसरे के खेत में लगे राखी के फूल का पौधा चुरा कर ले आया था। जब यह बात बाबा को मालूम पड़ी तो उन्होंने मेरी खासी पिटाई की। लेकिन सच बताता हूं कि तब मुझे इस बात का बिलकुल भी अहसास नहीं था कि सुंदर-सुंदर फूलों के पौधे चुरा कर लाना गलत बात होती है। तब मैं ‘पाप- पुण्य’ की सोच से दूर था। सावन का महीना आते ही लगता था जैसे त्योहारों की रेल आ गई है। सावन का महीना हमें एक उत्सव लगता था। हर सोमवार को शिवजी का फूलों से शृंगार, फिर आरती हमें भक्ति के रंग में बांध देती थी। मेरा एक बाल-मित्र था कृष्णा। वह मुझे कहता था कि बेलपत्र में शिवजी रहते हैं। मैं आज भी यह नहीं जान पाया हूं कि क्या वास्तव में बेलपत्र में शिवजी विराजमान होते हैं! हां, बचपन में झाड़ पर चढ़ कर मात्र तीन पत्ती वाले बेलपत्र तोड़ने में हमारी अगाध श्रद्धा जरूर थी।

सावन के महीने में मां रोजाना सुबह पीपल के वृक्ष की पूजा करती थी। बचपन में मैं भी उसके साथ जाता था। बरसात में समूची प्रकृति जैसे हरियाली की चादर ओढ़ लेती थी। उस समय मैं यह तय नहीं कर पाता था कि ये हरियाली मखमल ओढ़ी धरती मां सुंदर दिख रही है या मेरी अपनी मां। उन दिनों मेरी मां शैलेंद्र का लिखा यह गीत सस्वर गाती थी- ‘ओ सजना… बरखा बहार आई…!’ इस प्रकार बरसात ने मेरा बचपन भिगोया। सावन के महीने में राखी आती है। उसके बाद गणपति का आगमन होता है। मुझे याद है कि बचपन में गणपति के सामने काली मिट्टी के पहाड़ बना कर झांकियां सजाई जाती थीं। फिर सुबह-शाम आरती होती थी और रात को रोशनी में भजन मंडलियों की तानों की ऊंचाइयां सारे वातावरण को खूबसूरत बना देती थीं। कभी-कभी भजन मंडलियों की आवाज की ऊंचाइयों के साथ बरसात के बादल भी ‘शेर-गर्जना’ करते हुए बरसते थे तो गाने वाले भी आनंद में डूब जाते थे। अब याद आता है कि वे दिन भी क्या दिन थे बचपन के!

हाल ही में ऐसी ही अनगिनत बचपन की यादों में मैं खोने लगा था कि एक कर्कश ध्वनि से तंद्रा भंग हो गई। बाहर आकर देखा तो एक ट्रक हॉर्न बजाते और काला धुआं छोड़ते हुए हमारे घर के सामने से गुजर रहा था। तब लगा कि कहां वे बचपन की यादें, काले कजजारे बादलों की गड़गड़ाहट और कहां ये इस ट्रक का कर्कश हॉर्न और उसका काला धुआं..! और कहां गांव की वह प्यारी बरसात जो हवा के एक झोंके के साथ हमसे लिपट कर हमें भीतर तक भिगो जाती थी। लेकिन अब ऐसा बचपन कहां! अब तो बस उसकी यादों में ही हमें भीगना है।