बृजमोहन आचार्य
हाल के दिनों में आत्मनिर्भरता के विचार को लेकर देश में बहुत सारे लोग सक्रिय हो गए हैं। जिन श्रमिकों को इस समय कोई काम-धंधा नहीं मिल रहा है, उन्होंने अब विकल्पों के अभाव में स्वयं का रोजगार शुरू कर आत्मनिर्भरता के रास्ते पर चलना शुरू कर दिया है, ताकि किसी तरह पेट की आग को शांत की जा सके। पिछले दिनों उत्पन्न हुए हालात में सबसे ज्यादा दिहाड़ी पर निर्भर श्रमिकों के सामने रोजगार का संकट उत्पन्न हो गया है। उनके गांवों में भी ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी, जिससे वे अपने और अपने परिवार के पेट को पाल सके। बल्कि गांवों की इस हालत के मारे ही उन्होंने शहरों का रुख किया था। अब लगातार हालात बद से बदतर हो गए।
मेरे पैतृक घर के आसपास श्रमिक वर्ग की आबादी अधिक है। उनकी स्थिति ठीक उसी प्रकार की है, जैसे हाथों-हाथ कुआं खोदो और पानी निकालो। इस समय कोई काम नहीं होने के कारण श्रमिकों के सामने रोजगार की समस्या उत्पन्न हो गई थी। लेकिन उनके घरों की महिलाओं ने हिम्मत नहीं हारी। मजदूरी करके उनके पास जो भी जमा पूंजी थी, उसे निकाल कर घर की गाड़ी को चलाने में उन्होंने सहयोग दिया। इन महिलाओं के कंधों पर दोहरी जिम्मेदारी आ गई थी।
मेरे शहर में पापड़ बेलने का काम कुटीर उद्योग की तरह है। सूर्य निकलने के दौरान ये कर्मशील महिलाएं निकल जाती हैं पापड़ बेलने के काम के लिए। उन्हें इस काम में जो भी मजदूरी मिलती है, वे उसे बचा कर रखती हैं। इन महिलाओं को कभी किसी अर्थशास्त्री या सरकार ने कोई आर्थिक शिक्षा नहीं दी थी और न ही बचत के गुर सिखाए थे। घर में जो माहौल देखा था, उसी बदौलत वे आगे बढ़ गई थीं और घर संभालने के मामले में आत्मनिर्भर हो गई थीं।
हालांकि घर में जो भी व्यवस्था या फिर सुविधा होती थी, उसमें ही ये संतोष कर लेती थीं, लेकिन उन्हें बचपन में परिवार में ही यह तालीम दी गई थी कि बचत एक ऐसी व्यवस्था है, जो संकट में काम आती है। संकट के दौरान नजदीकी और यहां तक कि परिवार के लोग भी मुंह फेर लेते हैं। पूर्णबंदी के दौरान यहीं बचत महिलाओं के लिए संजीवनी बन कर काम आई।
अभाव कई तरह की मजबूरी पैदा करती है, लेकिन इन महिलाओं ने स्वाभिमानी होने के कारण किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया। जो काम इन महिलाओं ने अपने अभिभावकों से सीखा था, अब उसी काम को वे अपने बच्चों को भी सिखा रही हैं। मेरे शहर में ऐसी कई महिलाएं हैं जो न केवल पापड़ बेल कर घर को चलाने में सहयोग करती हैं, बल्कि मकान और सड़क निर्माण आदि कर्ई ऐसे काम हैं, जिनमें वे मजदूरी करके कुछ आय हासिल करती हैं।
केवल स्कूल-कॉलेज में अच्छी तालीम हासिल करने से आत्मनिर्भर नहीं बना जा सकता। मैंने ऐसी बहुत सारी महिलाओं को देखा है, जिन्होंने पढ़ाई-लिखाई की काफी ऊंची डिग्रियां हासिल की हैं, मगर एक धनी और सुविधाजनक घर में जगह मिल जाने की वजह से वे यह नहीं कह सकतीं कि वे आत्मनिर्भर हैं। आज देश के ग्रामीण इलाकों में जो महिलाएं खेती में अपना हाथ बंटा रही हैं, इसके लिए उन्होंने कोई कागजी शिक्षा हासिल नहीं की थी। अभाव और मजबूरी की दुनिया में पलते हुए जो काम उन्होंने बचपन में अपने घर के आंगन में देखा था, उन्होंने उसे ही आगे बढ़ाया। हां, यह सही है कि इस अभाव ने उन्हें शिक्षा के मामले में पीछे बनाए रखा है।
खेतों में काम करने वाली महिलाओं ने किसी कॉलेज या विद्यालय से कृषि के संबंध में कोई डिग्री नहीं ली होती है, लेकिन उनका अनुभव ऐसा होता है कि डिग्रीधारी भी उनके अनुभव से सीखने का प्रयास करते हैं। महात्मा गांधी ने तो आत्मनिर्भरता का पाठ बहुत पहले ही पढ़ा दिया था। उनका चरखा एक साधारण चरखा नहीं था। यह आत्मनिर्भरता का ही प्रतीक था। चरखे के सहारे ही उन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी का रास्ता अख्तियार किया था।
यही चरखा समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति को आगे बढ़ाने में सहयोग करता था। सही है कि इस मशीन-युग में आज घर-घर में मशीनों का जाल फैल गया है। ज्यादातर काम मशीनों से ही होने लगा है। इससे यह फायदा तो हुआ है कि कोई भी काम जल्दी हो जाता है और मांग के अनुसार आपूर्ति भी समय पर हो जाती है, लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा की मशीन-युग में कितने हाथ खाली हो गए हैं।
महात्मा गांधी आर्थिक स्वायत्तता या आत्मनिर्भरता को राजनीतिक स्वाधीनता की कुंजी कहते थे। उनका कहना था कि देश के निमार्ताओं के समक्ष दो रास्ते हैं। अधिकाधिक उत्पादन और अधिकाधिक लोगों द्वारा उत्पादन। पहला रास्ता एक नई आर्थिक गुलामी की ओर ले जाएगा और दूसरा रास्ता आर्थिक आत्मनिर्भरता के रास्ते हमें आगे बढ़ाएगा। आत्मनिर्भरता के लिए यह जरूरी है कि महिलाओं के लिए ऐसा रास्ता आसान बनाया जाए, ताकि वे स्वयं कुछ नया कुटीर उद्योग शुरू कर देश और अपने परिवार के विकास में स्वाभिमान के साथ आगे बढ़ सकें।