तीरथ सिंह खरबंदा
जब तक घड़ी के तीनों कांटे अपना काम ठीक से कर रहे होते हैं, तब तक हमारा ध्यान सेकंड के कांटे पर बहुत कम, लेकिन मिनट और घंटे को दर्शाने वाले कांटों पर कुछ ज्यादा ही जाता है। जब तक सब कुछ अच्छा चल रहा होता है, तब तक ये दोनों कांटे हमारी नजरों में ऐसे केंद्र बिंदु बने रहते हैं।
ये दोनों कांटे बीच-बीच में थोड़े-थोड़े निर्धारित अंतराल पर आपस में एक साथ मिलते ऐसे जान पड़ते हैं, जैसे आपस में बतियाते हुए कोई जरूरी कानाफूसी कर रहे हों, लेकिन दूसरी ओर सेकंड का कांटा बगैर रुके इन सब बातों से बेखबर अपने काम से काम रखता निरंतर अपनी गति से चलता ही चला जाता है। अपने काम के प्रति उसकी निष्ठा और लगन देखते ही बनती है।
यह तीसरा सेकंड वाला कांटा जब तक चलता रहता है, तब तक हमारा ध्यान इस दुबले-पतले, पर तीनों में सबसे लंबे और महत्त्वपूर्ण कांटे की तरफ कम ही जाता है। इन्हें देखकर ऐसा लगता है, जैसे असली मेहनत कोई और कर रहा हो, मगर उसका सारा श्रेय किसी और के खाते में जमा हो रहा हो। जिसका परिणाम यह होता है कि ये दोनों कांटे एक अहंकारी की मानिंद तीसरे की उपेक्षा करते हुए प्रतीत होते हैं। उन्हें यह गलतफहमी हो जाती है कि यह समय उन्हीं के भरोसे चलायमान है, अन्यथा सब कुछ ठहर जाएगा। वे इस सत्य से अनभिज्ञ ही रहते हैं कि घड़ी के कांटे भले ही चलना रुक जाएं, लेकिन समय कभी थमता नहीं है, बल्कि वह निरंतर चलता ही चला जाता है।
जब कभी कोई घड़ी चलते-चलते अकस्मात बंद हो जाती है, तब उसकी पुष्टि करने के लिए सबसे पहले हमारा ध्यान इसी तीसरे उपेक्षित कांटे पर जाता है। तब ऐसा लगता है जैसे संकट के समय में हमें उसी तीसरे कांटे पर ही सबसे ज्यादा भरोसा हो। दरअसल, घड़ी के तीनों कांटों में यही कांटा सबसे ज्यादा परिश्रमी होता है। शायद इसीलिए तीनों में यही सबसे कमजोर नजर आता है। इसी मेहनती कांटे की संगत के परिणामस्वरूप उसकी मेहनत का फल दूसरे दोनों कांटों को भी मिलता रहता है। जैसे ही यह कांटा चलते-चलते रुक जाता है, वैसे ही दूसरे दोनों कांटे भी रुकने को मजबूर होते हैं।
वास्तव में घड़ी की बाहरी दुनिया अत्यंत खूबसूरत होती है जो बहुधा बाहर से दिखने में हमें अत्यंत चमकदार और गोलाकार नजर आती है। इसमें अंदर की ओर विशेष भाषा या लिपि में लिखे बारह अंक हमें एक दल की तरह दिखाई देते हैं, लेकिन इसमें किसी तेरहवें अंक का कोई स्थान नहीं होता है। ये सभी अंक सदैव आपस में एक दूसरे से निर्धारित दूरी बनाए रखते हैं।
अनुशासन ऐसा कि मजाल है कहीं कोई गड़बड़ हो जाए। इस घड़ी के पिछले भाग में अंदर की ओर लगे बैटरी के एक सेल और एक यंत्र आपस में मिलकर ही एक समग्र घड़ी का रूप बनते हैं। अगर कभी कोई घड़ी चलते-चलते अचानक बंद हो जाती है तो चमकने वाले शीशे और डायल की चमक एकदम फीकी लगने लगती है। तब हमें पता चलता है कि घड़ी के डायल की बाहरी चमक-दमक तो मात्र शृंगारिक है। हमें घड़ी के जो कांटे चलते हुए दिखाई देते हैं, वास्तव में उन्हें पर्दे के पीछे से कोई और ही चला रहा होता है।
घड़ी का उपयोग करने वाले साधारण इंसान की सामान्य प्रवृत्ति भी हर काम का श्रेय स्वयं लेने की होती है। अक्सर हमें हरेक तस्वीर के केंद्र में घड़ी के दो कांटों की तरह जिन शख्स के चेहरे बीच में से झांकते हुए दिखाई देते हैं, वे इस सत्य को भूल जाते हैं कि जिस काम के लिए उनकी तस्वीर छपी है, उसका सारा श्रेय सिर्फ उन्हें ही नहीं जाता है। दरअसल, हरेक सफलता के पीछे सदैव पूरा एक अदृश्य तंत्र काम कर रहा होता है। कम से कम घड़ी का उपयोग करने वाले हरेक व्यक्ति को इस बात को सदैव स्मरण रखना चाहिए।
लोकतंत्र के इस सुंदर तंत्र में हर दिन जिन तस्वीरों को हम यहां-वहां देखते हैं, दरअसल वे चलती हुई घड़ी के दिखाई देने वाले बाह्य स्वरूप के सदृश्य मात्र हैं, जो रात-दिन बगैर रुके, बगैर थके घड़ी के सेकंड के कांटे की मानिंद रात-दिन चलते हुए सतत अपने काम में लगे रहते हैं। उन्हें न तो कभी श्रेय लेने की फुर्सत होती है और न ही उन्हें कभी उसकी अभिलाषा या चिंता रहती है। जैसे घड़ी के दो कांटे सदैव सारा श्रेय लेने के चक्कर में लगे रहते हैं, ठीक वैसे ही लोकतांत्रिक व्यवस्था में कुछ लोग लोक-तंत्र की असल शक्ति को नजरअंदाज कर पूरे समय सारा श्रेय लेने की होड़ और दौड़ में लगे दिखाई देते हैं।