भारतीय पुलिस प्रशासन की कार्यकुशलता पर अक्सर प्रश्न-चिह्न लगाया जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि पुलिस अधिकारियों को जब किसी चर्चित मामले की जांच सौंपी जाती है या उन्हें किसी क्षेत्रीय चुनाव की जिम्मेदारी दी जाती है तो उन पर राजनीतिकों द्वारा दबाव डाला जाता है, जिसे पूरा करने के लिए अधिकतर पुलिस अधिकारी न चाहते हुए भी तैयार हो जाते हैं। इनकार करने वाले अधिकारियों का स्थानांतरण होना तय माना जाता है। स्थानांतरण नेताओं के हाथ में एक हथियार की तरह है, जिसका दुष्परिणाम भारतीय समाज को भुगतना पड़ता है, अपराधियों के भीतर कोई स्थायी खौफ नहीं पैदा हो पाता।

अधिकारियों का बार-बार होने वाला स्थानांतरण पुलिस कार्य संचालन में पेशेवर दक्षता को बाधित करता है। अक्सर यह देखा जाता है कि पुलिस अधिकारियों द्वारा की गई कार्रवाइयां सत्तापक्ष के नेताओं के दबाव में ही होती हैं। हालांकि ऐसा नहीं कि इस तरह के दबाव में काम करते हुए पुलिस अधिकारी खुश होते हैं। जिलों और थानों में पुलिस इसलिए बेबस नजर आती है कि वहां उन अधिकारियों की नियुक्ति होती है जो स्थानीय नेताओं के चहेते होते हैं। इससे प्रशासनिक नियंत्रण की कड़ी में गंभीर दरार पड़ती है और पुलिस नेतृत्व का मनोबल गिरता है। इसी के चलते कई अधिकारियों ने पुलिस प्रशासन में व्याप्त गड़बड़ियों को दूर करने के लिए न्यायालय तक का सहारा लिया।

पुलिस अधिकारियों को एक तरफ समाज विरोधी तत्त्वों पर नियंत्रण स्थापित करना पड़ता है तो दूसरी तरफ उन्हें राष्ट्र निर्माण के क्षेत्र में धर्म, भाषा और जाति की भावनाओं से ऊपर उठ कर अनेक सकारात्मक और उपयोगी भूमिका का निर्वहन भी एक जनसेवक के रूप में करना होता है। वर्तमान समय में अपराधों का ग्राफ तेजी से बढ़ा है। इन अपराधों से निपटने में पुलिस, राजनेताओं के दखल के चलते कारगर नीति अपना नहीं पा रही है। राजनीतिक दबावों के कारण पुलिस की छवि भी धूमिल हुई है। विडंबना यह भी है कि बहुत सारे मामलों में कार्रवाई करते हुए पुलिस को शासन का दृष्टिकोण भी ध्यान में रखना पड़ता है।

अब समय आ गया है कि पुलिस अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान और ईमानदार छवि वाली बने। उसे राजनीतिक हस्तक्षेप के सामने डट कर खड़े रहने लायक और हिम्मती होना होगा। खुद को कानून से ऊपर समझने की मानसिकता खत्म होनी चाहिए। आम जनता की बात को सुनना पुलिस की पहली प्राथमिकता हो। लेकिन जब तक पुलिस की मानसिकता उसके राजनीतिक आकाओं का हुक्म बजाना रहेगी, तब तक बदलाव मुश्किल है। एक पेशेवर और ईमानदार पुलिस बल ही जनता का विश्वास हासिल कर बेहतर काम कर सकता है, न कि ऐसा जिसे मात्र स्वार्थ सिद्धि के लिए सत्ता पक्ष के लिए इस्तेमाल किया जाए।

हमें ऐसा पुलिस बल चाहिए जो बुनियादी तौर पर स्पष्ट, असरदार और निष्पक्ष तरीके से काम करने में कुशल हो। अनेक कमियों, मजबूरियों और परेशानियों के बावजूद जरूरत पड़ने पर पुलिस हमारे काम आती रहती है। कानूनी मदद आखिर पुलिस के रुख पर ही निर्भर करता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानून और राज्य व्यवस्था के सफल संचालन में पुलिस प्रशासन की अहम और सफल भूमिका होती है। मगर यह तभी संभव है जब पुलिस महकमे का हर शख्स अपने कर्तव्यों और अधिकारों को भली-भांति समझ कर उनका उचित ढंग से निर्वहन करे।

अगर इतिहास में झांक कर देखें तो पता चलता है कि भारतीय पुलिस आज भी 1861 में अंग्रेजों द्वारा बनाए गए पुलिस अधिनियम के माध्यम से संचालित होती है। पुलिस प्रशासन का मूल काम समाज में अपराध को रोकना और कानून व्यवस्था को कायम रखना है। ब्रिटिश हुकूमत ने 1861 के पुलिस अधिनियम का निर्माण दरअसल भारतीयों के दमन और शोषण के मूल उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए किया था। इसलिए दमनकारी और शोषणकारी पुलिस अधिनियम की राह पर चलने वाली पुलिस व्यवस्था से स्वच्छ छवि की उम्मीद कैसी की जा सकती है? सच यह है कि इसी कारण से समाज में पुलिस का चेहरा बदनाम हुआ है।

एक पहलू यह भी है कि पुलिस वाले भी समाज के हिस्से और आखिर इंसान होते हैं। उन्हें भी घूमने-टहलने और घर-परिवार वालों के साथ समय बिताने की इच्छा होती है, लेकिन इसके लिए उन्हें बहुत कम वक्त मिल पाता है। मनोविज्ञान भी यह कहता है कि लगातार ऐसी स्थिति में जीने वाला व्यक्ति चिड़चिड़ा हो जाता है और अपने मन की खुन्नस दूसरों पर निकालने पर उतारू हो जाता है। इसी से पुलिस का वह चेहरा उभर कर सामने आता है, जिसमें वह क्रूर दिखाई देती है, जिस पर सवाल उठना लाजिमी है। इन सभी बातों को ध्यान में रखें तो आज देश में बिना देरी किए पुलिस सुधार की जरूरत है।

(बुद्ध प्रकाश)