कुछ समय पहले मध्यप्रदेश के एक सरकारी स्कूल में सतत और व्यापक मूल्यांकन प्रक्रिया के संचालन के बारे में समझने का मौका मिला। शिक्षकों के साथ बातचीत काफी अच्छी रही और मैं यही अनुभव लेकर वापस आ भी जाती, अगर दोपहर के भोजन के समय तक नहीं रुकी होती। सरकारी स्कूलों में बच्चों को मध्याह्न भोजन दिया जाता है। ग्रामीण स्कूलों में भोजन स्थानीय स्तर पर बनता है। मैंने भी बच्चों के लिए तैयार भोजन चखने की इच्छा जाहिर की, तो पास में खड़ी सभी शिक्षिकाएं ठिठक गर्इं। मुझे समझ नहीं आया कि माजरा क्या है। उनमें से एक ने थोड़ी हिम्मत जुटा कर कहा- ‘हम तो यह खाना नहीं खाते।’ मैंने आश्चर्य से पूछा कि क्यों! इस पर उन्होंने एक खास जाति का नाम लेते हुए कहा कि उस जाति की महिला बनाती है इस कारण हम नहीं खाते। उस दौरान स्कूल के कुछ बच्चे भी हमारे आसपास मौजूद थे और उनमें से ज्यादातर उसी जाति के थे। शिक्षिकाओं के मुंह से यह सुन कर मेरे होश उड़ गए। हालांकि इससे मिलती-जुलती खबरें अक्सर अखबारों में छपती रहती हैं, उसके बावजूद मैं हैरान थी।
उस समय तो बच्चों के साथ खाकर मैं भोपाल के लिए निकल पड़ी, लेकिन यह बात लगातार कई दिनों तक मुझे परेशान करती रही कि स्कूल तो वह स्थान होना चाहिए जहां सभी जाति, धर्म, वर्ग और संप्रदाय से आने वाले बच्चों को समान आदर मिले। मगर ऐसे उदाहरण भेदभाव को और बढ़ावा दे रहे हैं! यह जगजाहिर है कि सरकारी स्कूलों में अधिकतर बच्चे दलित-पिछड़ी जातियों और आदिवासी समुदाय से आ रहे हैं। ऐसे में ये स्थितियां हमें सोचने पर मजबूर कर रही हैं कि हम किस तरह की शिक्षा अपने समाज को दे रहे हैं और ऐसी शिक्षा से हमारा समाज कैसा बनेगा! किस तरह के मूल्य और संस्कृति के वाहक ये बच्चे बनेंगे? इस तरह की मानसिकता का प्रभाव बच्चों पर ज्यादा पड़ता है। जैसे उच्च कही जाने वाली जातियां अपने से निम्न कही जाने वाली जाति के बच्चों से बात करना या उनके साथ भोजन करना पसंद नहीं करती हैं। सवाल है कि ऐसी भावनाएं और धारणाएं उनके भीतर कैसे आती हैं?
आमतौर पर वंचित तबकों के बच्चों को कक्षा में पीछे बैठे देखा जा सकता है। ये बच्चे ज्यादातर समय अपने समुदाय के बच्चों के साथ रहते हैं, क्योंकि वे शायद अपने समूह में अधिक सहज और सुरक्षित महसूस करते होंगे। सच तो यह है कि हाशिये के समाज से आने वाले बच्चे स्कूल में भी हाशिये पर ही रह जाते हैं। इसकी परिणति क्या होती है, इससे हम सभी परिचित हैं। जाति के आधार पर सामाजिक बर्ताव का आलम और उसके असर का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि छोटे-छोटे बच्चे भी अपनी जाति की वजह से झेंपते नजर आते हैं।
कई बार बच्चों के बीच में पढ़ाई छोड़ देने के कारणों में भी जाति मुख्य आधार के रूप में काम करती है। मसलन, घुमक्कड़ परिवारों से आने वाले बच्चे अक्सर इसके शिकार बनते हैं। पारदी समुदाय को इतिहास के किसी दौर में ‘अपराधी जनजाति’ घोषित किया गया था। आजादी के बाद गलती महसूस होने पर इसमें सुधार किया गया। लेकिन आज भी लोगों की जुबान से इस तरह की उपमाएं निकलती रहती हैं। मसलन, स्कूल से कोई भी चीज चोरी होने पर सबसे पहले इन्हीं बच्चों को कठघरे में रखा जाता है। कक्षा में ऐसे बच्चों को जातिसूचक शब्दों से संबोधित करते सुना जा सकता है। इसी तरह, किसी दलित या आदिवासी महिला या पुरुष के हेडमास्टर या अन्य ऊंचे पद तक पहुंच जाने पर उच्च कही जाने वाली जातियों से आने वाले अधीनस्थों द्वारा उन्हें सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता है और उनकी योग्यता पर सवाल उठाए जाते हैं।
ऐसी खबरें आम हैं जिनमें यह दर्ज होता है कि स्कूल जाने वाले किसी खास जाति के बच्चे को शौचालयों की सफाई में लगा दिया जाता है। जबकि ब्लैकबोर्ड पर लिखने वाले चाक लाने के लिए दूसरे बच्चे का चुनाव किया जाता है। धार्मिक ग्रंथों से चले आ रहे कुछ मिथक भी जातिगत दुराग्रहों को बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं।
आज कई बार लोगों को यह कहते हुए सुना जा सकता है कि अब जाति-पाति नहीं है। आम व्यवहार में अघोषित तौर पर घुली हुई जाति तो दूर, किसी भी अखबार में वैवाहिक विज्ञापन को देखा जाए तब पता चलता है कि खुद को आधुनिक कहने वाले पढ़े-लिखे और उच्च पदों पर आसीन लोगों को भी यह विज्ञापन देने में कोई हिचक नहीं होती कि सजातीय वर या वधु ही चाहिए। ऊपर से देखने पर सब बहुत सामान्य लगता है। लेकिन इसकी बहुत महीन परतें हैं, जिन्हें खोलने और संवेदनशीलता के साथ समझने की जरूरत है। सवाल है कि क्या यह जरूरी नहीं है कि बच्चों से बच्चों की तरह व्यवहार करें, न कि किसी खास जाति, धर्म, लिंग और सीखने की गति को आधार बना कर!
