अपने एक मित्र के साथ चौराहे पर बातचीत के लिए रुका था। तभी देखा कि एक छह-सात साल की लड़की महंगा-सा मोबाइल कान में लगाए किसी से बतियाते हुए चली जा रही है। उसे देख कर मित्र बोला- ‘देखो उसे, न दाएं देख रही है न बाएं। इस उम्र में हम लोगों को मां-बाप खड़िया और स्लेट पट्टी के साथ स्कूल तक छोड़ कर आते थे।’ मंैने कहा- ‘यार, जमाना बदल रहा है। लोग अब पांच साल के बच्चे को भी बच्चा नहीं समझते। स्कूल में हमारा नाम पांच वर्ष की उम्र में लिखवा दिया गया था। अब सब बदल गया है। पांच से पहले ही बच्चे स्कूल जाने लगते हैं। केजी- 1 और केजी- 2 में उनके दाखिले के लिए मां-बाप लंबी कतार में खड़े अपने इंटरव्यू की बारी का इंतजार करते हैं। हर कोई रफ्तार के साथ चलना चाहता है। लोग तो इस उम्र के बच्चे को कार की ड्राइविंग सीट पर बिठाने का करतब दुनिया भर को दिखाना चाहते हैं। किसी बच्चे की आंखों में बचपना दिखता ही नहीं है। ऐसा लगता है कि पैदा होने के बाद मां-बाप सीधे उसे युवा वय में देखना चाहते हैं।’

कुछ दिन पहले अखबार में पढ़ा था कि न्यूजीलैंड की जानी-मानी फोटोग्राफर निकी बून ने अपने बच्चों के लिए टीवी और इलेक्ट्रॉनिक सामानों पर पाबंदी लगा दी। उन्हें प्राकृतिक वातारण देने के लिहाज से अपने फार्म हाऊस पर नदी, पहाड़, बाग-बगीचे आदि के मॉडल बना कर नैसर्गिक वातावरण तैयार कर दिया। सवाल उठता है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया! इसके पहले एक शोधपत्र पढ़ा था कि अमेरिकन बच्चे मोटे हो रहे हैं। उस शोधपत्र में इसकी वजह बताई गई थी टीवी और गैजेट। अब यही हाल कमोबेश हर जगह दिख रहा है। हमारे देश में भी। सुन कर आश्चर्य होता है कि बीस साल की उम्र में ही कोई युवक मधुमेह और रक्तचाप बीमारी का शिकार हो गया। यह बदलाव गुपचुप और दबे पांव हो रहे हैं। हमने गैजेट और टीवी का अंधाधुंध उपयोग किया है।

कहते हैं, अति सर्वथा वर्जयते! इन इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के अत्यधिक उपयोग ने सामाजिक दायरे को सीमित कर दिया है। बड़े-बड़े परिवार टुकड़े-टुकड़े में बंट रहे हैं। आज स्थिति यह है कि कोई किसी के घर जाकर सीधा संवाद पसंद नहीं करता। अलबत्ता मोबाइल पर ही मैसेज या इ-मेल से दीपावली, होली, क्रिसमस या ईद की शुभकामनाएं प्रेषित कर देता है। इतना ही नहीं, किसी विशेष अवसर पर उपहार या भेंट या फिर जन्मदिन के लिए किसी तीसरे माध्यम से गुलदस्ता या तोहफा भिजवा देता है। इसी कारण पोस्टकार्ड या अंतर्देशीय पत्र गुजरे जमाने की यादें हो गए हैं। बात यहीं तक सीमित नहीं रही है। शादियां गैजेट पर तय हो रही हैं। कहीं ऐसा न हो कि कल को मोबाइल या लैपटॉप पर ही शादियों के फेरे पड़ने लगें।
खैर, बात बच्चों के संदर्भ में है। आज किसी बच्चे के चेहरे पर मासूमियत, भोलापन या शरारत दिखायी नहीं देती। छह-सात साल की उम्र में ही परिपक्वता झलकने लगती है। अल्हड़पन कहीं नजर ही नहीं आता। इस उम्र में कभी हम बेफिक्र नदी में नहाते थे, तितलियों के पीछे-पीछे भागते थे, बचपन में सहज-सुलभ खेल खेलते थे। आउटडोर खेलों में धूप-छांव, अष्टाचंगा, गिल्ली-डंडा और पतंगबाजी आदि थे और इनडोर खेलों में सांप-सीढ़ी और व्यापार आदि खेलों में अपना बचपन गुजारा है। लेकिन अब ये खेल हेय दृष्टि से देखे जाते हैं। अगर किसी से इस संबंध में बात करें तो कहेगा- ‘डिस्गस्टिंग’ यानी घृणा के लायक! आजकल बच्चे एक जगह बैठे-बैठे ही खेल लेते हैं। मोबाइल ऐप में सैकड़ों आभासी गेम भरे पड़े हैं।

वह खबर पढ़ते-पढ़ते मैं सोच रहा था कि आखिर निकी बून ने ऐसा क्यों किया होगा! उन्हें प्राकृतिक मॉडल क्यों तैयार करना पड़ा, जबकि हमारे लिए तो वे सर्वसुलभ थे। बल्कि अभी भी कुछ शेष है। फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि अनजाने में हमने बहुत कुछ खो दिया है। वजह दरअसल हम ही हैं। किसी ने बचपन के बारे में सोचा नहीं जो वह खुद जी चुका है और अब बढ़ती उम्र में उसके फायदे परिलक्षित हो रहे हैं। वही सब हमने अपने बच्चों के लिए संभाल कर नहीं रखा। दौड़ा दिया एक रेस में घोड़े की तरह। विकास की अंधी दौड़ में नदियों को सुखा दिया, पहाड़ों को सरपट मैदान बना दिया और घर के सामने लगे आम, इमली और अमरूद के पेड़ों को जड़ से इसलिए काट डाला कि वहां अपनी कार के लिए गैराज की जगह बनानी थी। नतीजतन, अब कहीं बाहर घूमने-फिरने के लिए नए-नए ठिकाने तलाशते फिरते हैं।
कभी-कभी बाल दिवस पर एक गाना अक्सर सुनाई देता है- ‘नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है…!’ यह गाना पहले कभी सार्थक हुआ करता था। लेकिन अब महज शब्दों की शुष्क कड़ी नजर आता है। आज के समय में यह गाना अर्थहीन और खोखला लगता है।