संजीव राय
आजकल कक्षा नौ में पढ़ने वाला मेरा बेटा मुझे जूतों के बारे में नई-नई जानकारी देता है। वैसे तो जूता समाज में हमेशा चर्चा में रहा है। लेकिन जब हमने जूते के इतिहास की एक सतही जानकारी जुटानी चाही तो पता चला कि लगभग चालीस हजार साल पहले तक जूते के चलन की जानकारी पुरातत्त्वविदों ने जुटाई है। स्पेन की गुफा में डेढ़ हजार साल पुरानी चित्रकारी में दर्शाया गया है कि मानव प्रजाति अपने पैरों में जानवरों के चमड़े और खाल लपेटती थी। खैर, पांच हजार साल पहले तक के तो जूते भी मिले हैं।
अपने यहां शादी-विवाह हो, पंचायत हो, मंदिर हो, मस्जिद हो या कोई बड़ा आयोजन हो, जूते की भी अपनी भूमिका होती है। जूता फेंकना भारत सहित अनेक देशों में राजनीतिक सरगर्मी पैदा करने का एक आजमाया हुआ हथियार है। जूते की बहु-उपयोगिता ही होगी कि जूते पर अनेक कहावतें-मुहावरे चलन में हैं। जूतम-पैजार होना, चांदी का जूता मारना, जूते की नोक पर रखना और भोजपुरी में ‘इहे मुंह पान खाला, इहे मुंह पनही (जूता)’ आदि-आदि!
जूते का संबंध फैशन के साथ-साथ आपकी हैसियत, आपके काम-धंधे, सामाजिक स्तर के साथ भी जुड़ा रहता है। कुछ दशक पहले तक हिंदुस्तान के अनेक गांवों में कुछ जातियों को जूता-चप्पल पहनने की इजाजत नहीं थी। पुराने मिस्र में दास या तो नंगे पैर रहते थे या फिर खजूर के पत्तों से अपनी चप्पल बनाते थे। लेकिन रईस लोग, ऊंची-नोकदार सैंडल पहनते थे। लाल और पीले रंग के जूते-सैंडल की इजाजत केवल संपन्न लोगों को थी।
अस्सी के दशक में मैं जब मिडिल स्कूल में था तो उन दिनों फिल्मी प्रभाव से युवाओं के बीच ऊंची हील के सैंडल और उस पर ‘डॉन’ का स्टिकर बहुत चलन में था। हमने भी अपने ममेरे भइया की शादी में जाने के लिए ऐसी एक सैंडल बनवाई थी। पिताजी लंबे समय तक घर में पहनने के लिए काठ का बना खड़ाऊं रखते थे और दफ्तर के लिए बाटा का एक जूता। गांव में कुछ लोग मोची से चमड़े की ‘पनही’ बनवाते थे और उसमें सरसों का तेल भी डालते थे जिससे जूते मुलायम रहें। पहले भी प्लास्टिक के जूते बाजार में मौजूद थे।
पहले गांव की बारात में कुछ लोग अपने चमड़े के जूतों को सिरहाने रखते थे क्योंकि पत्तल की तलाश में घूम रहे कुत्ते मौका पाते ही जूते लेकर भाग जाते थे। रात भर में कुत्ते जूते को काट कर बदशक्ल कर देते थे। जूतों की चोरी का डर तो तब भी था और अब भी है। हमारे एक भाई ने नया जूता खरीदा और दिल्ली के एक मशहूर सरकारी अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में गए। वहां अंदर जाने के लिए जूता बाहर निकालना पड़ता है। पांच मिनट के बाद जब वे वापस आए तो उनके जूते की जगह एक पुरानी हवाई चप्पल मिली!
जूतों का एक संग्रहालय उत्तरी अमेरिका के टोरंटो में है। वहां चार-पांच हजार बरसों की जूते की विकास यात्रा देखी जा सकती है। आज आप बाएं पैर-दाएं पैर के जूते नापते हैं लेकिन 1818 के पहले दोनों पैर के जूते एक समान होते थे। ऊंची हील के सैंडल, राजपरिवारों, फैशन मॉडलों, फिल्मी दुनिया की नायिकाओं के हमेशा से पसंदीदा रहे हैं, लेकिन प्राचीन समय में कुछ देशों में सैंडल की बढ़ती ऊंचाई रोकने के लिए कानून बनाने पड़े थे।
हमारे देश में ट्रकों के पीछे अकसर एक पैर का जूता टंगा मिलता है। कुछ लोग बुरी नजर से बचने के लिए अपने नए घर पर पुराना जूता टांग देते हैं। भारत में हिंदुओं में शादी में दूल्हे का जूता सालियों द्वारा चुराने का चलन है। चीन में शादी के समय दुल्हन का एक लाल रंग का जूता छत से उछाला जाता है। ऐसी मान्यता है कि इससे शादी का जोड़ा सौभाग्यशाली बना रहता है। आजकल जूतों का एक नाम ‘स्नीकर’ प्रचलित हो रहा है। रबर के सोल की वजह से खेलकूद वाले जूते ‘स्निकर’ कहलाते हैं। वैसे तो 1917 से स्निकर बनने लगे थे लेकिन 1923 से ‘एडिडास’ ने उनको अंतरराष्ट्रीय बाजार में उतारा। 1936 के ओलंपिक में एडिडास के जूते पहने हुए धावक जेस्सी ओवेंस ने चार स्वर्ण पदक जीत लिया और फिर एडिडास के जूतों की धाक पूरी दुनिया में जम गई।
आज बाजारों में कई मंजिला शो-रूम केवल जूतों के लिए बन गए हैं। लाख-लाख रुपयों के जूते लांच हो रहे हैं। नए लांच होने वाले जूते लोग लाइन लगा कर और आॅनलाइन खरीद रहे हैं। 1991 की बात है। मैं अपनी एक रिश्तेदारी में गया था। वहां गांव के बुजुर्ग नथून, जो कभी हलवाही करते थे, मिले थे। मैंने बातों-बातों में बताया कि बॉटा कंपनी ने 2400 रुपए का जूता निकाला है। उन्होंने बड़े आश्चर्य से पूछा था, ‘ऐ मालिक, के पहिनत होई ऊ जुतवा!’ उनको लगा होगा कि इतने महंगे जूते कौन पहनता होगा। उनके सवाल में कई सवाल अंतर्गुफिंत हो गए थे। अब वे नहीं हैं। लेकिन उनके सवाल का जवाब मेरी चुप्पी में गुम हो गया है।