यह कहा जाए कि दिल्ली से बिहार की किसी ट्रेन में बहुत भीड़ थी और उसमें भी भयंकर गरमी और भीड़ ने ट्रेन यात्रा को दुरूह और कष्टकर बना दिया था तो कोई नई बात नहीं होगी। दरअसल, ऐसा कुछ नहीं हुआ होता तब शायद कह सकते थे कि यह नई बात है। जब मैं दिल्ली के आनंद विहार स्टेशन पर ट्रेन में दाखिल हो रहा था, तभी लग गया कि यह यात्रा यादगार रहने वाली है, क्योंकि सीमांचल एक्सप्रेस के कुछ घंटे की देरी से चलने की घोषणा हो रही थी।

प्रतीक्षा सूची से लेकर तत्काल और प्रीमियम के नाम पर टिकटों और उपलब्ध जगहों को किस कारोबार में झोंक दिया गया है, यह किसी से छिपा नहीं है। कोई भी व्यक्ति कहीं आने-जाने के लिए सोचता नहीं है, चिंता में पड़ जाता है। इस बीच जब तक मैं अपनी सीट पर पहुंचा, वहां एक परिवार ने कब्जा जमा रखा था। केवल सीट ही नहीं, बल्कि सीट के नीचे का स्थान भी उनके सामान से अटा पड़ा था। यही हाल दूसरी तरफ भी था। लेकिन दूसरे सभी कम्पार्टमेंटों में भी यही हालत थी। हर तरफ से यही शोर आ रहा था कि ‘उठो यहां से…’, ‘हटाओ अपना सामान…’, ‘अरे भैया बैठने दीजिए, हम भी तो पैसे दिए हैं न…!’ कहीं धमकी दी जा रही थी तो कहीं ‘लेडीस’ को बैठा लेने की गुहार लगाई जा रही थी। इस बीच मेरी सीट के आसपास की सीटें जिनके नाम से आरक्षित थीं, वे सब आ गए।

थोड़ी ही देर में ऐसी स्थिति आ गई कि लगा वह कम्पार्टमेंट ही युद्ध का स्थान बन जाएगा। जिनके पास प्रतीक्षा सूची वाली टिकट थी, उन्होंने अपना सामान जहां रखा हुआ था, वहां कन्फर्म टिकट वालों के सामान रखे जाने लगे। एक परिवार दो-तीन सीटों पर बैठे थे, उन्हें उठना पड़ा तो उन्होंने एक शौचालय में जगह ले ली। देसी ढर्रे के शौचालय के बेसिन पर कुछ सामान रख कर उसे बैठने लायक बना लेना हम भारतीयों के जीवट का ही परिचायक है।

ट्रेन जब स्टेशन से चल पड़ी, तब पूरे डिब्बे में लोग भरे हुए थे। बहत्तर लोगों के लिए बनाए गए डिब्बे में दो सौ से ऊपर लोग भर जाएं तो दशा का अंदाजा ही लगाया जा सकता है। खासकर तब जब लोग शौचालयों में भी शरण ले लें। त्योहारों के मौसम में ऐसे दृश्य आम हैं, लेकिन शादी विवाह के मौसम में भी यही हालत रहती है। ट्रेन चली तो हवा ने थोड़ी राहत पहुंचाई। लगा, खोई हुई ऊर्जा वापस आ रही है। बोगी में हर पल कुछ न कुछ हो रहा था। लोग अपनी जगह बनाने के लिए हर दूसरे व्यक्ति से झगड़ रहे थे।

रेलगाड़ी अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी और इसी के साथ गरमी और लोगों की प्यास भी बढ़ने लगी। प्यास के साथ मैंने देखा है कि जब पता चल जाए कि पानी मिलना मुश्किल है, तब यह और बढ़ जाती है। वेंडर पानी लाते होंगे और वह हमारी बोगी से पहले ही खत्म हो जाता होगा। एक परिवार अपने साथ एक बड़ा-सा जग लेकर चढ़ा था। उन्हें पानी पीते हुए जब और लोग देखते तो उन आंखों में उनकी प्यास उतरी हुई दिखती। मेरा कभी नींद में होना और उससे बाहर सब कुछ वैसा ही सामान्य दिखना, नींद में होने को झुठला रहा था।
अचानक एक शोर से मेरी नींद खुल गई। उस शोर में केवल बेहद खराब गालियां थीं। माजरा समझ में नहीं आ रहा था। लेकिन थोड़ी ही देर बाद पता चला कि उस परिवार के मयूर जग का नल किसी ने खोल दिया और जब तक लोगों को समझ में आता, सारा पानी बह चुका था। गुस्से में जोर से बोलते हुए उस परिवार की महिला का चेहरा रुआंसा हो गया था। आखिर थक कर वह चुप हो गई।

जब प्यास के सामने पानी न मिलने की स्थिति हो और अपने पास बचा हुआ कोई इस तरह बहा दे, तो उसका दर्द समझा जा सकता है। ट्रेन जहां भी रुकती लोग पानी भरने के लिए दौड़ पड़ते। मैंने एक बोतल खरीदी थी और उसी से थोड़ा-थोड़ा करके काम चला रहा था। उस परिवार में तीन बच्चे थे और तीनों ही पानी मांग रहे थे। बच्चों के साथ वही स्त्री अकेले सफर कर रही थी और उसका सारा पानी बहा दिया गया था। अब जो हालत उस कम्पार्टमेंट में थी, लोग एक दूसरे से नजरें भी नहीं मिला पा रहे थे। सबको लगता था कि सब एक साथ अपराधी हैं।
थोड़ी देर में मैंने देखा कि पानी की एक-एक बोतल चालीस रुपए तक में बिक रही थी। गरमी के दिनों में भरी हुई ट्रेन की प्यास के आगे चालीस रुपए कोई मोल भले नहीं रखते हों, लेकिन व्यवस्था की जिम्मेदारी से इतर यह स्थिति मनुष्य के बीच से बचा-खुचा मनुष्य भी निकाल देने के लिए काफी होती है।