एकता कानूनगो बक्षी

जहां हम थम गए, वह शायद अंत है। सच तो यह है कि न सिर्फ हमें फूलों की तरह उम्र भर महकना है, बल्कि जीवन के पार भी किसी और के खिलने और महकने की वजह बनना है। अपनी सीमित सोच और जल्दबाजी के चलते हम नएपन को गहराई से समझने में अक्सर गलती करते रहते हैं।

हमें लगता है कि जो भी नया विचार, नया कदम है, वह हमेशा बेहतरी के लिए ही होगा या फिर हममें से कुछ नए को कमतर समझते हुए केवल उस पर संशय करते हैं और उसका प्रतिकार भी करते हैं। इस तरह की प्रतिक्रियाएं कुछ हद तक तब तक अपूर्ण और अपरिपक्व कही जाएंगी, जब तक कि नवीनता को उसकी वैधता और प्रासंगिकता के संदर्भ में गहराई से न समझा जाए। यह भी कि उसके मूल में सबका हित और दूरगामी कल्याण और खुशी शामिल है भी या नहीं।

हमारे पास ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनसे यह समझ आता है कि वर्षों पहले की गई कोई पहल, काम, विचार, सृजित साहित्य, कला आज भी उतने ही नए और प्रासंगिक बने हुए हैं, जितने वे बीते हुए समय में थे। वह चाहे गांधीजी के सत्य के प्रयोग हों, अहिंसा और स्वच्छता को लेकर उनके विचार रहे हों, हरेक व्यक्ति की भोजन की सुनिश्चितता के लिए गुरु नानक जी के ‘लंगर’ और ‘सेवा’ जैसी महान कल्याणकारी सोच रही हो, सावित्री बाई फुले की महिला सशक्तिकरण और स्त्री शिक्षा के लिए उठाए गए साहसी कदम रहे हों या फिर साहित्य की अनेक कालजयी रचनाओं में उठाए महत्त्वपूर्ण मुद्दे और प्रश्न हों।

ऐसी कई महत्त्वपूर्ण तत्कालीन साहसी और परिवर्तन की कारक नवीन दृष्टि हमें इतिहास के पन्नों में सहज नजर आ जाती है, जो वर्षों पुरानी होते हुए भी उतनी ही नई, ताजा और सार्थक है और उनसे हुए सामाजिक, वैचारिक, नैतिक बदलाव हमारे वर्तमान और भविष्य के लिए आज भी मजबूत आधार बने हुए हैं।

तात्कालिक लाभ और स्वार्थ के तहत नएपन की चाह में किए गए काम, विचार या आश्वासन उस समय हमें जरूर आकर्षित कर चमकीले नजर आ सकते हैं। मुट्ठी भर लोगों की खुशहाली का वादा करते हुए व्यापक सामाजिक कल्याण की उपेक्षा कर लाए गए बदलाव की उम्र बहुत कम होती है और उनसे होने वाले दुष्प्रभाव का दीर्घकालीन असर आने वाली अनेक पीढ़ियों की तकलीफ का सबब बनने की पूरी आशंका होती है। इसके ठीक उलट, सही सोच के साथ लाए नएपन या बदलाव के साहसी कदम वर्तमान में थोड़ा कष्टकारी लग सकते हैं, पर इन्हीं से एक नई दुनिया, नए समाज का उदय भी संभव होता है।

आम इंसान का ज्यादातर जीवन अपनी आजीविका की चिंता के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। उसके लिए इस तरह की क्रांतिकारी बात सोचना थोड़ा कठिन हो सकता है, लेकिन यह भी समझना होगा कि सच्चा ‘नयापन’ तो कुछ इसी तरह किसी बीज में अंकुरण की तरह बेआवाज ही जन्म लेता है। बड़े बदलाव की शुरुआत भी आंतरिक, छोटे समूहों और छोटे प्रयासों से शुरू होती है। इस प्रक्रिया में आम व्यक्ति की भूमिका बेहद अहम होती है। अगर खुद को सजग, सचेत रख अगर सही के पक्ष में और गलत के विरोध में खुद को खड़ा करने का साहस कर पा रहे हैं तो भी यह बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान होगा। बदलावों पर नजर रख कर सही सवाल उठाना और मुद्दों पर गंभीरता से अपने विचार रख कर भी कल्याणकारी वातावरण का निर्माण किया जा सकता है।

रोजमर्रा के जीवन में कुछ छोटे-छोटे उपाय कर बड़े बदलाव की शुरुआत की जा सकती है। सदियों से चली आ रही रूढ़िवादी परंपराओं, रीति-रिवाजों से मुक्ति जो किसी व्यक्ति विशेष पर केवल दबाव बढ़ाती हो, अंधविश्वास और दकियानूसी सोच को बढ़ावा देती हो, उनका बहिष्कार कर परिवार के हर सदस्य को एक समान सम्मान और कार्यों के समविभाजन से परिवार में प्रगतिशील विचारधारा की बुनियाद रखी जा सकती है।

समाज में व्याप्त बुराइयों, जैसे शादी, मृत्यु भोज, मिलन समारोह पर खानपान पर अत्यधिक व्यय और बर्बादी के प्रति थोड़ी जागरूकता अवश्य आई है, लेकिन अभी हम इनसे मुक्त नहीं हो पाए हैं। इस सामाजिक चेतना के लिए परिजनों, लोगों में जागरूकता लाना और अपने कार्यों से उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उन्हें भी इस अभियान में शामिल करना जरूरी है। प्राकृतिक संसाधनों के बेलगाम दोहन की बात हो या फिर व्यक्ति विशेष के शोषण की बात, हर गलत हरकत पर साहस भरी आवाज, विरोध, नयापन लाने के लिए बहुत अहम भूमिका निभाते हैं।

इंसान और मशीनों में सबसे बड़ा अंतर यह है कि मशीनों, वस्तुओं का समय के साथ मूल्य ह्रास होता जाता है. वहीं सचेत, सक्रिय व्यक्ति समय के साथ नया और अमूल्य होता जाता है। हम मशीन या वस्तु नहीं हैं। जब हम खुद में और अपने आसपास सचमुच नया और सकारात्मक बदलाव देखें तो जरूर हमें एक दूसरे से कहना चाहिए- ‘मुबारक हो!’