सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में यों तो विद्यालय का हर क्षण अति महत्त्वपूर्ण होता है, लेकिन ‘मॉर्निंग असेंबली’ यानी प्रार्थना सभा का वक्त इसलिए अधिक महत्त्व रखता है, क्योंकि इस समय समूचे विद्यालय को एक नजर में समेटा जा सकता है। प्रार्थना सभा में सभी शिक्षक-शिक्षार्थी एक साथ उपस्थित होते हैं और मिल कर गतिविधियों में भाग लेते हैं। सभी कक्षाओं के बच्चे एक साथ बैठते हैं और बच्चों को बड़े समूह के सामने बोलने का मौका मिलता है। जिससे बड़े समूह में एक साथ ज्यादा बच्चों को सीखने का मौका मिलता है। साथ ही यह विद्यालय संबंधित निर्णय, सूचना, आदेश, निर्देश से सबको अवगत कराने का सर्वोत्तम समय होता है।
पिछले कुछ महीनों के दौरान मुझे अलग-अलग विद्यालयों में प्रार्थना सभा को देखने का मौका मिला। आमतौर पर सरकारी विद्यालयों में प्रार्थना सभा के प्रारूप में इस प्रकार की गतिविधियां शामिल होती है- ईश वंदना, सरस्वती वंदना, राष्ट्रीय गीत, प्राणायाम, समाचार वाचन, दोहे आदि। किसी-किसी विद्यालय में गुरुमंत्र के साथ दो-तीन मिनट भगवान का ध्यान भी कराया जाता है। ये गतिविधियां विद्यालय में समान रूप से रोजाना दोहराई जाती हैं। ज्यादातर बच्चों को ये मौखिक याद हो गई हैं।
विद्यालय में प्रार्थना सभा के उद्देश्यों को लेकर मैंने शिक्षकों के साथ विस्तार से चर्चा की, जिसके कुछ प्रश्न ये रहे- प्रार्थना सभा में सरस्वती वंदना कराने के पीछे क्या उद्देश्य है; क्या विद्यालय में गुरुमंत्र और भगवान का ध्यान कराया जाना चाहिए; प्रार्थना सभा में राष्ट्रगान और देशभक्ति वाले नारों का क्या महत्त्व है; रोजाना एक जैसी गतिविधियों के कारण क्या बच्चों के अंदर नीरसता का भाव नहीं आता है आदि। इन पर चर्चा के दौरान शिक्षकों ने अलग-अलग मत रखे। ज्यादातर शिक्षकों का मानना था कि सरस्वती वंदना से बच्चों का शिक्षा के प्रति लगाव बढ़ता है और उनमें अनुशासन आता है। प्रार्थना सभा काल के दौरान गाए जाने वाले राष्ट्रगीत और देशभक्ति वाले नारे विद्यार्थियों में मातृभूमि के प्रति प्यार, लगाव और समर्पण का जज्बा पैदा करते हैं। गुरुमंत्र बोलने से बच्चों का गुरु यानी शिक्षक के प्रति आदर बढ़ता है। समाचार वाचन और दोहों आदि से बच्चों के सामान्य ज्ञान में वृद्धि होती है।
लेकिन कुछ शिक्षकों का मानना था कि प्रार्थना सभा में सरस्वती वंदना और गुरुमंत्र जैसी गतिविधियों को शामिल नहीं करना चाहिए। उन्होंने अपने तर्क रखते हुए कहा, विद्यालय एक राजकीय संस्था है और किसी भी राजकीय संस्था में किसी एक धर्म विशेष की गतिविधियों का आयोजन नहीं करना चाहिए, क्योंकि विद्यालय में सभी धर्मों और सभी वर्गों के बच्चे पढ़ने आते हैं। चर्चा के दौरान जब मैंने शिक्षकों से पूछा कि क्या सरस्वती वंदना बोलने से बच्चों में अनुशासन आ जाएगा और गुरुमंत्र बोलने से बच्चों के दिल में गुरु के प्रति आदर किस प्रकार बढ़ेगा तो इसका उनके पास कोई संतोषजनक उत्तर नहीं था।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि अगर हम प्रार्थना सभा की गतिविधियों के माध्यम से बच्चों के अंदर अनुशासन, सम्मान, सहयोग, ईमानदारी, न्याय और संवेदनशीलता जैसे मूल्य विकसित करना चाहते हैं तो जरूरी है कि वे मूल्य शिक्षकों के व्यवहार में आए। दरअसल, मूल्य केवल प्रार्थना, मंत्र और उपदेशों से विकसित नहीं किए जा सकते हैं। एक शिक्षक का फर्ज बनता है कि वह ‘मूल्यों’ को अपने जीवन का हिस्सा बनाएं, फिर बच्चों के दैनिक व्यवहार में लाने का प्रयास करें। जैसा कि विद्यालय एक राजकीय संस्था होने के साथ-साथ अपने आप में एक सामाजिक संस्था है, क्योंकि इस संस्था में बच्चे और वयस्क खास भूमिकाओं में रह कर एक दूसरे के साथ संवाद करते हैं। यह पूरा संवाद कुछ नियमों और व्यवस्थाओं से बंधा होता है।
दूसरा, विद्यालय में विभिन्न समुदायों के बच्चे और शिक्षक सीखने-सिखाने की प्रक्रियाओं में शामिल होते हैं। वे सभी अपने साथ अपनी सामाजिक-संस्कृति को साथ में लेकर आते हैं तो यहां आवश्यकता होती है विद्यालय को एक अपनी संस्कृति बनाने की, जिसमें सभी सहज और सम्मानित महसूस करें। तो प्रश्न उठता है कि विद्यालय की अपनी संस्कृति कैसी हो!
मेरे विचार से एक लोकतांत्रिक देश में राजकीय और सामाजिक संस्था होने के तौर पर बच्चों में लोकतांत्रिक संस्कृति के बीज बोना और उसको बढ़ावा देना विद्यालय की मुख्य भूमिका है और विद्यालय की प्रार्थना सभा काल इसका एक महत्त्वपूर्ण माध्यम हो सकता है। विद्यालय में लोकतांत्रिक माहौल बनाने की शुरुआत प्रार्थना सभा से की जा सकती है। हालांकि प्रार्थना सभा के बंधे-बंधाए ढांचे से बाहर आना थोड़ा मुश्किल और चुनौतीपूर्ण है। साथ ही यह धैर्य और समय की मांग भी करता है। लेकिन थोड़े समय और धैर्य के साथ शिक्षक अगर इस ओर प्रयास करें तो यह संभव भी है।