सुरेश सेठ
राजनेता लोग क्रांतिकारी हो जाने का आडंबर रचते हैं और देश की बहुसंख्या अपने आप को वहीं खड़ा पाती है, रियायती अनाज की दुकानों के आगे लगी अंतहीन कतारों में, जिसकी समयावधि बढ़ना उनके लिए वरदान माना जाता है। नेताओं के रंग यहां निराले हैं। जनसेवा की जगह वे परिवार सेवा, गुट सेवा, जाति सेवा में विश्वास रखते हैं और उसे न्यायोचित ठहरा कर नैतिकता के नए पैमाने बना देते हैं।
चाहे देश का शिखर न्यायालय इस पर प्रश्न उठाए, लेकिन उसे नजरअंदाज करके देश का राजनीतिक रथ उसी मंथर गति से चलता नजर आता है कि जहां कुर्सी छिन जाने पर भी कुर्सी छीनने वाले के प्रति चतुर सुजान नेता मोह दिखाते हैं, आशीर्वाद देते और उसमें से अपने लिए एक नया अर्थ निकाल लेते हैं। शायद अर्थ यही कि ऐसा करके देखो, वे कितने महान व्यक्ति बन गए। जीवन के उतार-चढ़ाव देख कर वे निस्पृह हो चुके हैं।
यों राजनीति, समाज और आगे बढ़ने की अंधी दौड़ में पीछे छूट गए लगभग हर व्यक्ति को हमने इसी तेवर में देखा है। यह कैसा चलन है कि जब कोई हार जाता है, तो ऐसा संदेश देता है, इस आपाधापी भरी दुनिया को त्याग देने का संदेश देता है। निहित भाव यही रहता है कि मैंने कभी इन छोटी-छोटी ललचाहटों की परवाह नहीं की।
ज्यों-ज्यों चुनाव की घंटी करीब आती जाएगी, यह आडंबर शायद और बढ़ जाएगा। जमी-जमाई कुर्सियां उखड़ेंगी। जिन राजप्रासादों को अपनी मिल्कियत समझा था, अगर वही आज बेगाने हो गए तो इनसे विदा लेते हुए भला और क्या कहते? यही न कि मैंने कभी इनकी कामना नहीं की। आपकी सेवा का, जनसेवा का भार था, जो हम पर लाद दिया गया था।
हम तो आजीवन यही सेवा धर्म निभाते रहते, हम जाते तो हमारे बेटे, नाती-पोते इस सेवा को निभाते, लेकिन कुछ लोगों से हमारी यह महानता बर्दाश्त नहीं हुई। लीजिए, अब हम क्यों इस ओछी नाखुशी को बढ़ावा दें? आजकल जो कोई नहीं करता, वही हमने कर दिखाया। एक लोकगीत की तरह ‘लै माये सांभ कुंजियां, सजन तो परदेसी हो गए’, सब कुछ छोड़-छाड़ कर चल दिए। अजी यह केवल एक राज्य, एक बलिदान की कहानी नहीं है, न जाने कितने लोग फंसने पर त्याग भाव से अलविदा कहते दिखाई देते हैं। यह केवल एक राज्य की नंबरदारी हो या एक सामाजिक प्रतिष्ठान की।
मगर ऐसे हर बलिदान की कहानी का दूसरा रुख बांचने वाले भी आपको दिख जाएंगे। अजी कोई बलिदान बलिदान नहीं था, महोदय के सिर के ऊपर से इतना पानी गुजर गया था कि अब सिवा डूबने के कोई और चारा न था। अब जब डूबना ही है तो क्यों न जलसमाधि का नाम दे दें। मगर इस बलिदान का अर्थ कभी अलविदा नहीं होता। अपने प्रस्थान को महा बलिदान का नाम देकर वे सदा लौटने की फिराक में रहते हैं। इस वापसी को करते हुए भी बड़े-बड़े शीर्षक उनकी सेवा में आ जुटते हैं।
उधर जो उनकी कुर्सी छीन जम कर बैठ गए, वे भी तो यही कह रहे थे आम लोगों से कि बहुत ज्यादती हो गई, तुम्हारे साथ। उत्थान के नाम पर भाई-भतीजावाद चला, और सामाजिक और राजनीतिक जीवन में सफाई के नाम पर कूड़े के पहाड़ बना दिए। अब होगा असली उत्थान, बसेगी नई दुनिया। यह असली उत्थान, और नई दुनिया बसाने की बात भी खूब है साहब।
जो अलविदा कहने को मजबूर हुए, वे भी अब ऐसी ही दुनिया बसा लेने के वादे के साथ वापसी चाहते हैं, और जो अब कुर्सी पर आ जमे, वे तो खैर आए ही इस नई दुनिया को स्थापित कर देने के ढोल-ढमाके के साथ थे। यह नई दुनिया खूब है साहब। जो अपनी स्थापना के समर में कूदता है, इसी घोषणा के साथ कूदता है। पक्ष हो या विपक्ष। है कोई ऐसा माई का लाल, जो इस घोषणा के चमकीले आवरण के बिना इस समर में कूद सके? आओ, हम इन समर योद्धाओं में से सबसे ऊंची आवाज वाले योद्धा को विजय तिलक लगाएं और अपूर्व धीरज के साथ इस नई दुनिया के बसने का इंतजार करें।
मगर कहां तलाश करें, हम इस नई दुनिया को? क्या इस नए सर्वेक्षण में कि जहां सच में धन और आय की समानता पैदा करने वाले लक्ष्यों ने यह परिणाम दिखाया कि आज देश दस प्रतिशत के पास नब्बे प्रतिशत धन संपदा आ गई, और बाकी नब्बे प्रतिशत के पास देश की दस प्रतिशत धन संपदा।
इस देश में हर हाथ को काम देने का वादा किया था, काम दिया तो सही, उन कतारों में खड़े होने का, जहां रोटी से लेकर आयातित संस्कृति तक खैरात में बंटती है। लुभावने नारों के पंखों पर यह नई दुनिया चल रही है। बेकार युवकों के लिए गांवों में नया समाज बसाया है। इसीलिए तो उद्योगपतियों को यहां भी नवस्थापन की इजाजत मिल गई। खैर, चौंकिए नहीं, ऐसी विसंतियों में ही तो यह देश सदा पला-बढ़ा है।