हिला देने वाली यह खबर अकेली नहीं है, ऐसी और भी होंगी। महाराष्ट्र के लातूर में सूखा पीड़ित इलाके के एक किसान की सोलह साल की लड़की ने इसलिए आत्महत्या कर ली कि उसके पास बस पास बनवाने के लिए पैसे नहीं थे और वह कॉलेज नहीं जा सकती थी। उसके माता-पिता कर्ज में डूबे थे। उसकी बहन की शादी होने वाली थी और लड़की से माता-पिता का दुख देखा नहीं जा रहा था। उसने आत्महत्या करने से पहले जो पत्र लिखा बैंक अधिकारियों और साहूकारों के नाम, उसमें यह अपील शामिल है कि ‘मेहरबानी कर मेरे पिता को परेशान नही करें। वे ईमानदार हैं और मेरी बहन की शादी के बाद तुम्हारा पैसा लौटा देंगे।’ न जाने इस देश में कितने बेटे और बेटियां इसी तरह का दुख झेलते हैं, आत्महत्या करते हैं या कम उम्र में छोटे-छोटे कामों में लग जाते हैं। पढ़ नहीं पाते हैं। जर्जर जीवन जीते हैं।

कुल मिला कर यही लगता है कि हमारा समाज कई मामलों में बेहद संवेदनहीन होता गया है। आखिरकार जो लोग चीजों में मिलावट और जमाखोरी करते हैं, रिश्वत लेते हैं, लड़कियों को छेड़ते, उन्हें सताते, दहेज हत्या करते हैं, कर्ज पर भारी ब्याज लेते हैं, वे भी तो इसी समाज के हैं। किसी लड़के द्वारा एक फल की चोरी पर उसे पीट-पीट कर मार डालने की घटनाएं भी होती ही हैं। दूसरी ओर क्लर्कों, अधिकारियों आदि के यहां से किसी छापे में करोड़ों रुपए की नकदी बरामद होती है। ‘रेल नीर’ का किस्सा छप चुका है। स्कूलों में बच्चों को जो खाना दिया जाता है, उसे खाकर कई बार बच्चे बेहोश होते हैं, मरते हैं। इसके अलावा, बिचौलिए हमारे हस्तशिल्पियों, कारीगरों को भी लूटने से नहीं छोड़ते, तो समाज की तस्वीर कैसी उभरती है! खुद पुलिस द्वारा लोगों को, साधनहीनों को विशेष रूप से, प्रताड़ित किए जाने की खबरें भी हम पढ़ते-सुनते हैं।

इस मसले पर नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले समूह हैं जरूर, पर सच्चाई यह भी है कि ‘पैसा’ ही इस समाज में एक ऐसा ‘मूल्य’, ऐसा सर्वशक्तिशाली तत्त्व बन कर उभरा है, जैसा इस समाज में शायद पहले कभी नहीं था। न जाने कितने घरों का दीया-बाती, भोजन-भजन, पैसे के अभाव में छिनता-छीजता रहता है। दूसरी ओर, वे अट्टालिकाएं खड़ी हो रही हैं, जो ईमानदारी के धन से नहीं बनी हैं।

जिस लड़की ने लातूर में आत्महत्या की, उसके पत्र में ‘ईमानदार’ शब्द पर गौर करें। वह जोर देकर कहती है कि मेरे माता-पिता ईमानदार हैं। वह जान रही है कि शायद ‘ईमानदारी’ के कारण ही उनकी यह दुर्दशा हुई है। यह लड़की और उस जैसी हजारों-हजार लड़कियां ‘ईमानदारी’ को अब भी एक मूल्य मान रही हैं, जिसका हवाला देकर ‘रक्षा’ की अपील की जा सके। पर पैसे का वर्चस्व ऐसा बढ़ा है कि समाज में अब ऐसे लड़के-लड़कियां भी हैं, जो ‘ईमानदार’ होने को दोष मानने लगे हैं और गाहे-बगाहे माता-पिता को यह कहने से भी नहीं चूकते कि तुम्हारे ‘आदर्श’ और तुम्हारी ईमानदारी किसी काम के नहीं है! इनसे कुछ भी खरीदा-बेचा नहीं जा सकता है।

मैं उस लड़की और उसके उस पत्र की ओर ही एक बार फिर लौटना चाहता हूं। दोनों ही मर्मांतक हैं। आत्महत्या के पीछे एक कारण यह भी लगता है कि शायद उसकी चिट्ठी और आत्महत्या, उसके माता-पिता की कुछ तो रक्षा कर सकेगी! यह कोई सोची-विचारी रणनीति नहीं थी, उसका एक भोला विश्वास था, अवचेतन में। माता-पिता के लिए कुछ न कर पाने की, उनके साथ अन्याय होता हुआ देख कर भी कुछ न कर पाने की पीड़ा न जाने कितने बच्चे देखते-सुनते हैं, दलित परिवारों के और साधनहीन परिवारों के। यह भी कितना दुखद है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में खासतौर पर ऐसी खबरें कभी-कभी ही सुर्खियां बनती हैं, वह भी सनसनी की तरह मगर विशेष चर्चा का कारण नहीं बनती हैं। ‘विशेष चर्चा’ तो बड़े-बड़े विषयों पर होती है और उसमें कोई अपना दोष, अपनी गलती स्वीकार करता हुआ आज तक नहीं दिखा।

प्रेमचंद जैसे लेखक समाज की तमाम विसंगतियों, बुराइयों और संवेदनहीनता के बारे में जिस तरह लिखते रहे, उसे पढ़ा-सराहा गया, पर समाज-बदल का काम जिस पैमाने पर होना चाहिए था, वह नहीं हुआ। अब अन्याय की कितनी सच्ची कहानियां रोज छपती हैं प्रिंट मीडिया में! इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी वह कुछ तो आती ही हैं, लेकिन उनका भी कितना और कैसा असर कहां होता है, इसका ठीक-ठीक पता नहीं चल पाता। आखिरकार वह कौन-सी चीज है जो कई बार ऐसी खबरें आने के बाद कि अमुक प्रदेश के अमुक जिले में बच्चों के मिड-डे मील में मिलावट हुई या असावधानी बरती गई; बच्चे मर गए। ऐसी घटनाएं बार-बार होती हैं। जिस समाज में ‘बच्चों का भोजन’ भी लोग ‘खाने लगे हों’, उसकी गिरावट के लिए और किसी दूसरे पैमाने की जरूरत है क्या!  (प्रयाग शुक्ल)

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