गौरव बिस्सा

कई बार भूख-प्यास की परवाह किए बिना सुबह से शाम तक पतंगबाजी, त्योहार पर आगंतुकों का मेला, साथ बैठकर भोजन और आनंदित मन। ये सब बचपन की यादें हैं। बड़ा हो जाने पर भी कटी पतंग देखने पर किसी के पैरों में हलचल होने लग सकती है, भले ही बढ़ती उम्र के कारण पैर आगे नहीं बढ़े।

मगर अब त्योहारों के मौके पर भी ऐसा लगता है कि बच्चों को त्योहार, पतंगबाजी, साथ बैठकर भोजन करने और गपशप करने की तो फुर्सत ही नहीं है। बच्चे त्योहारों से पूर्णतया कट गए हैं और उनके कंधों पर ऐसा भारी-भरकम बस्ता लाद दिया गया है कि उनका बचपन मायूस होकर मानो कहीं गुम-सा हो गया है। बच्चे को दिन-रात सिर्फ पढ़ाई करते रहने और पढ़कर पैसा बनाने के लिए प्रवृत्त किया जा रहा है।

पढ़ना बहुत जरूरी है, यह सच है। हर अभिभावक चाहता है कि उसका लाडला बड़ा होकर अपना और अपने परिवार का नाम रोशन करे। लेकिन पढ़ाई के अत्यधिक दबाव के चलते बच्चों का बचपन ही कटी पतंग-सा हो गया है। आज बच्चों के भविष्य को लेकर अभिभावक इतनी ज्यादा योजनाएं बना डालते हैं कि बेचारे का बचपन इस सोच में ही खत्म हो जाता है कि आगे चलकर वह कैसे अपना भविष्य संवारेगा।

भविष्य की चिंता में बचपन मायूस हो गया लगता है और उसकी उम्र खेलने-कूदने में कम और भविष्य की योजनाओं में ही बीत रही है। वह जब सुबह उठता है, तभी से बस्ते का भार और अभिभावकों के दबाव में इतना दब जाता है कि बचपन की परिभाषा ही भूल जाता है। न तो उसे दादी-नानी की कहानियां याद रहती हैं और न ही बेफ्रिक होकर यार-दोस्तों के साथ घूमना। अब तो उसे इंजीनियर या चिकित्सक बन कर पैसा कमाने का रास्ता दिखाया जा रहा है।

इसमें एक अलग मार है मोबाइल की, जिसने मानो त्योहारों की खुशी को छीनकर आपसी दूरियां बढ़ा दी हैं। पहले साल में दो से तीन बार अपनों से मिल लिया जाता था। उनकी कुशलक्षेम पूछी जाती थी, त्योहार के बहाने मिलने पर मुलाकात के साथ ही कई गिले-शिकवे भी दूर हो जाते थे। अब दुनिया एक स्क्रीन और अंगूठे तक सीमित है। किसी से कोई मतलब नहीं। सोशल मीडिया पर फोटो डालने की मूर्खतापूर्ण प्रतियोगिता है।

त्योहार के महत्त्व से ज्यादा जरूरी हो चला है सोशल मीडिया पर अद्यतन भाव और फोटो परोसना! बच्चों को त्योहार का भाव समझा पाने में मानो समाज असमर्थ है और उस बच्चे को सिर्फ मोबाइल तक सीमित कर दिया गया है। वह भी हर काम मोबाइल पर फोटो डालने के लिए कर रहा है। पतंग उड़ाने और लूटने की मस्ती के बीच मैंने देखा कि बच्चे रील बनाने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे थे।

अब मोबाइल ही मानो दादी-नानी हो गया है। मैं जब छोटा था तो दादी से कहानी सुनकर ही सोता था। इन कहानियों से संस्कारों की नींव पड़ती थी। कहानियों का संदेश भी संयुक्त परिवार और आपसी सद्भाव का होता था, लेकिन अब समाज में बढ़ रहे एकल परिवार और मोबाइल ने यह सब नष्ट-सा कर दिया है। एक प्रकार से बचपन की जो अल्हड़पन था, वह गुम हो गया है।

त्योहार से विमुख होकर आत्मकेंद्रित हुए बच्चों को कौन सिखाए कि त्योहार सबके साथ मनाया जाता है। कौन घर पर व्यंजन बनाए? किसी त्योहार पर बनने वाला देसी खीचड़ा अब पास्ता और पिज्जा से बदला जा चुका है। बच्चों को देसी पकवानों की जानकारी ही नहीं है। आज खानपान बदला है, कल वेशभूषा बदलेगी और परसों संस्कृति!

आखिर हम कौन-सी परंपरा के साथ जिएंगे? बच्चों को कैसे समझाएं कि त्योहार महंगे होटलों में घूमने के नहीं, बल्कि अपने आत्मीय संबधों को सुदृढ़ बनाने के मौके होते हैं। बच्चों ने अगर सोशल मीडिया के दासत्व को छोड़कर सामाजिक संबधों का उचित निर्वहन न किया तो मानसिक स्वास्थ्य का बिगड़ना सदी की नई महामारी बन जाएगा।

हाल ही में बंगलुरु के एक युवा का पत्र चर्चा में है, जिसमें उस प्रतिभावान युवा ने लिखा है कि पैसा, पद, शोहरत, नौकरी आदि होने के बावजूद वह अकेला और तनहा है? क्यों है ये तन्हाई? इसका कारण है बचपन में बचपने का गुम हो जाना। बस्ते के बोझ तले बच्चे का दब जाना और सबसे बढ़कर है सिर्फ भविष्य में पैसा कमाने की अंधी दौड़ के कारण अपने आपको स्व की कोटर में बंद कर देना।

इस वजह से बच्चा सिर्फ पढ़ाई कर रहा है, बाकी सामाजिक कार्य और खेलकूद का आनंद गुम है। यही समस्या का मूल है। अगर बच्चे को समाज की गतिविधियों से अवगत कराना है तो उसे बचपन की उन गलियों में घुमाना होगा, जहां उसका बचपन किसी मांझे में उलझ कर रह गया है। बच्चा कहीं कटी पतंग न हो जाए, इसलिए अभिभावकों को भी यह सोचना होगा कि बच्चे का विकास बस्ते के बोझ से नहीं, बल्कि खुद की विस्तृत सोच से ही होगा।