अनीता जगदीश सोलंकी
मगर मुख्यधारा में आधुनिकता को जिस नजर से देखा जाता है, क्या वह कुछ दिखावे के पैमानों में सीमित है या फिर वह वास्तव में विचारों और जीवन मूल्यों की जड़ों में पलता है? आखिर क्या वजह है कि एक व्यक्ति जो आम और औसत धारणा के लिहाज से आधुनिक दिखना चाहता है, वही किसी दूसरे मोर्चे पर बेहद पुरातनपंथी और जड़ मानसिकता से लैस बरताव करता है और उसे लेकर पूरी तरह रूढ़ विचार रखता है।
खासतौर पर सामाजिकता की कसौटी पर वह अलग-अलग तबके हों या फिर स्त्री-पुरुष के बीच विचार और मानस का फर्क, ज्यादातर लोग संकीर्ण नजरिया रखते हैं, लेकिन उन्हें खुद को आधुनिक कहा जाना पसंद होता है। यह छिपी बात नहीं है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में धर्म और जाति की दीवारें आधुनिक समय में भी व्यवहार में उतनी ही ऊंची और मजबूत हैं, जो कभी अतीत में इतिहास के पन्नों पर दर्ज रही हैं।
आए दिन कहीं न कहीं इस तरह की घटनाएं हमारे समक्ष आ ही जाती हैं, जो मन को अंदर तक झकझोर कर रख देती हैं। उस वक्त दिलो-दिमाग में इस तरह के विचार उमड़ते हैं कि हम समाज को बदल डालें। लेकिन ऐसा करना शायद हर दौर में किसी मजबूत इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति के लिए भी बेहद मुश्किल रहा है।
भेदभाव की जड़ों से उठी कोई भी घटना जब होती है तो कुछ समय के लिए हम भले ही उसके प्रभाव में रहकर परेशान और क्रोधित होते हैं, लेकिन फिर जैसे-जैसे दिन गुजरते हैं, हम सब भुलाकर अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में पहले की तरह व्यस्त हो जाते हैं। सही है कि वक्त ठहर नहीं सकता और दुनिया की गति भी रुक नहीं सकती, लेकिन क्या समाज के प्रति बस सोचने भर की जिम्मेदारी है हमारी और इससे ज्यादा कुछ नहीं? किसी भी व्यक्ति का मानस या उसकी सोच-समझ का धरातल सामाजिक व्यवहारों से निर्धारित होता है।
समाज का अमूमन समूचा व्यवहार आमतौर पर धार्मिक मान्यताओं और विचारों से संचालित होता है। ऐसा कोई भी धर्म नहीं होगा जो व्यक्ति को हिंसक होना सिखाता हो या अन्य धर्म के लोगों से बैर करना सिखाता हो। सभी धर्मों का एक ही सार बताया जाता है कि मानवता की रक्षा और सृष्टि के प्रत्येक प्राणी से प्रेम करना ही वास्तविक जीवन-मूल्य हैं।
लेकिन आज हम जब चारों ओर नजर दौड़ाते हैं तो व्यवहार और सोच-समझ की परिभाषा कुछ और ही दिखती है। आधुनिकतावाद की होड़ में जहां विश्व के अन्य देश आगे निकल गए, वहां भारत जैसा घनी आबादी वाला विशाल देश आज भी धर्म और जाति जैसे संजीदा मुद्दों में इस तरह से उलझा हुआ है कि व्यक्ति यहां अपना और अपनी मानवीयता का नुकसान भी आसानी से कबूल लेता है। सवाल है कि मानवीय मूल्यों पर हावी संकीर्णता की जकड़न कैसा समाज और देश बनाती है!
एक सुशिक्षित समाज से कतई ऐसी उम्मीद नहीं होती है जो आज के हालात में हम अक्सर देखते हैं। युवा पीढ़ी शिक्षित और महत्त्वाकांक्षी होते हुए भी बेरोजगारी की वजह से राजनीतिक प्रपंच में फंसकर धर्म के नाम पर हिंसा पर उतारू हो जाती है। जबकि इसका हासिल यही होता है कि मनुष्यता के मूल्य थोड़े और कमजोर हो जाते हैं। इसका कारण शिक्षा से उपजी वास्तविक चेतना और इसके साथ-साथ रोजगार का अभाव होना है, जिससे वर्तमान दिशाहीन और भविष्य अंधकारमय हो जाता है।
मानवीयता का समाज बनाने के लिहाज से सकारात्मक सोच और विचारों की आंधी की जरूरत है, जो प्रतिगामी सोच को जड़ से उखाड़ दे। देश को जातिगत और लैंगिक भेदभाव जैसी बीमारियों से मुक्ति की जरूरत है, तभी देश का हर आम नागरिक अमन-चैन से रह पाएगा और एक बेहतर मनुष्य बन पाएगा। बहुत मामूली बातों और शिगूफों से दिग्भ्रमित कर दी जाती युवा पीढ़ी को सही दिशा में सोचने और ऐसी सोच के मौके छीनने की जरूरत है।
एक मासूम और स्वच्छ सोच से लैस बचपन जब अपनी मिट्टी में सुरक्षित होगा, तभी देश का हर बच्चा खौफ के साए से निकल कर सुकून से आगे बढ़ पाएगा। ऐसा संभव है, अगर लोग मनुष्यता और आधुनिकता के वास्तविक जीवन मूल्यों की पहचान कर आपस में मिलकर बदलाव की एक ऐसी जमीन तैयार करें, जहां इंसान को उसके धर्म या उसकी जाति से न जाना जाए, बल्कि उसके काम और उसकी क्षमता को दर्ज किया जाए।
शायद तभी एक पंगु समाज की जगह सभ्य, शिक्षित और सकारात्मक सोच वाला समाज निर्मित हो पाएगा। इस तरह का समाज बनाने के लिए धर्म और जाति की ऊंची होती दीवारों को तोड़ने और नफरत को किसी भी कोने में जगह न देने की जरूरत है। प्रकृति ने आखिर किसलिए धरती पर भेजा है मनुष्य को? यहां आने के बाद अगर वह प्रतिगामी विचारों का वाहक बन जाता है तो उसके जीवन का क्या हासिल होगा? ऐसी कुछ मामूली बातों पर ही गौर करने से कोई व्यक्ति और समाज एक सुंदर भविष्य रच सकता है।