कुछ दिन पहले मैं अपने घर की सीढ़ियों से होकर ऊपर जाने लगी तो आसपास फुदकती हुई चिड़िया ने टुकुर-टुकुर मेरी ओर देखते हुए जैसे कहा कि अपने से कभी दूर मत करना… पहले ही मेरे बहुत सारे बहन-भाई, सगे-संबंधी और हमारी प्रजाति इस दुनिया से विलुप्त होने की कगार पर है… कई मनुष्य सुविधा के नाम पर अपने स्वार्थ और शानो-शौकत के लिए जंगलों को खत्म कर रहे हैं, पेड़ काट रहे हैं। इसका असर सबसे ज्यादा हम पर ही पड़ रहा है। हमारे रहने के ठिकाने और घर की जगह खत्म हो रही है… जब हमारा आशियाना हमसे छीना जा रहा हो तो हम खुद को कैसे सुरक्षित रख सकते हैं? हमारी प्रजाति के कम होने का दुष्परिणाम अभी मनुष्य समझ नहीं पा रहा है। प्रकृति का संतुलन बिगड़ता जा रहा है!

उस वक्त तो मैं अपने कमरे में आ गई, लेकिन उस गौरैया की मासूम आंखें मेरा पीछा करती रहीं। मैं अपनी पुरानी यादों में खो गई। हमारे पैतृक मकान के बीच में एक बड़ा-सा आंगन था। उस आंगन में अक्सर मां खाना बनाने के बाद कुछ चावल के दाने बिखेर देती थीं। एक गौरैया युगल वहां आता और वह चटपट दाने खा जाता। धीरे-धीरे वहां और गौरैया ऐसे आने लगीं जैसे वहां उनके लिए उनका आशियाना बना दिया गया हो और मेरी मां ने उन्हें आमंत्रण दे दिया हो। जाहिर है, मां को भी यह अच्छा लगने लगा और उनके लिए यह रोज का काम होने लगा। उन्हें जैसे उन चिड़ियों की आदत-सी पड़ गई।

मां के साथ-साथ एक व्यक्ति और भी था जो उन पक्षियों का कलरव सुनने के लिए बेचैन रहता था। बेशक वह मैं थी। सुबह में मैं काम चाहे कोई भी कर रही होती, लेकिन हर दम मेरे कान उस ओर ही लगे रहते थे जहां उनकी चहचहाहट आ रही होती थी। नहा-धोकर जल्दी से आंगन में जाने के लिए अपनी उत्सुकता को रोक नहीं पाती थी। आंगन में जाकर जब तक उन नन्हीं गौरैयों को दाना खाते हुए नहीं देख लेती और उनकी चीं-चीं सुन नहीं लेती, तब तक चैन नहीं आता था।

मुझे याद हैं बचपन के वे दिन जब माता-पिता के साथ सुबह-सुबह घूमने जाती थी। वहां कोयल की मीठी-मीठी आवाज सुन कर आत्मविभोर हो उठती थी। हम बच्चों में एक प्रतियोगिता-सी होती थी कि इतने पक्षी देखे…! इतने तोते, इतनी तितलियां, इतनी गौरैया…। आज उन पुराने दिनों को याद करती हूं तो मन प्रफुल्लित होने लगता है। लेकिन आज के हालात देख कर कई बार ऐसा लगता है जैसे वे दिन अब शायद कभी नहीं आएंगे। ऐसा क्यों होता है? वक्त के साथ-साथ पुरानी बातें क्यों मात्र याद बन कर रह जाती हैं? क्यों बीता समय केवल सपनों में सिमट कर रह जाता है? आज क्यों वे पंछी हमारी आंखों से ओझल होते जा रहे हैं?

क्यों हमारे बच्चे आज उन पक्षियों को नहीं पहचानते? क्यों आज सैकड़ों पक्षियों के बीच एक ‘गौरैया दिवस’ मनाने की नौबत आई? क्यों इस दिवस का नाम सुन कर हमारे बच्चे अचंभे से भर जाते है? उन्हें मैं कैसे उन नन्हे पक्षियों के रूप-रंग और तमाम बातों के बारे में बताऊं, जिन्हें बच्चों ने ठीक से देखा तक नहीं हो। मैंने अपने बच्चे को उस चिड़िया के बारे में बता तो दिया, लेकिन कोई निराकार रूप से साकार रूप की कल्पना कैसे कर सकता है? कल्पना में तो गौरैया और बाकी दूसरी चिड़िया आ गई, लेकिन उनको सामने देखे बिना उसके बारे में ठीक से समझना कितना संभव हो सकेगा…!

यह किसी मनुष्येतर जीव की गतिविधियों को देख कर केवल अच्छा या सुहाना लगने का मामला नहीं है। यह एक पारिस्थितिकी तंत्र में संतुलन को बनाए रख कर अपने सहित समूचे जीव-जगत के जीवन को समृद्ध बनाने का सवाल है। अब एक बार फिर से अपने घरों में हमें कहीं न कहीं किसी कोने में एक छोटा-सा घर इस चिड़िया के लिए बनाना होगा। उसे किसी भव्य आशियाने की आवश्यकता नहीं है। वह तो थोड़ी-सी रूई, थोड़ा-सा घास-फूस, किसी लटकी हुई बोतल, लकड़ी के बने छोटे से पिंजड़े में अपने को बहुत सुरक्षित महसूस कर सकती है। स्कूलों में सभी शिक्षिकाओं को इन पक्षियों के बारे में बच्चों को जानकारी देना चाहिए। अगर इन अमूल्य धरोहर को संभाल कर रखने के तरीके बता दिए जाएं तो बच्चे भी कुछ ऐसा कर लेंगे, जिसकी इस धरा को बहुत जरूरत है।