प्रेमलता मिश्रा

यह भी एक बड़ा कारण है कि दसवीं आते-आते करीब चालीस फीसद बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। उनके लिए स्कूल, पुस्तक, परीक्षा, डिग्री महज एक उबाऊ या रटने वाली गैर-उत्पादक प्रक्रिया होती है और उसमें वे अपनी रोटी या भविष्य नहीं देखते।

दरअसल, शिक्षा प्रणाली का मौजूदा स्वरूप आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है। इसमें पाठ्य-पुस्तकें भी शामिल हैं। स्कूल में पढ़े हुए के मूल्यांकन के तौर पर होने वाली परीक्षा और उसके परिणामों ने एक भयावह सपने, अनिश्चितता की जननी और बच्चों के नैसर्गिक विकास में बाधा का रूप ले लिया है।

लिखना, पढ़ना, बोलना, सुनना- ये चारों क्रियाएं वैसे तो अलग-अलग हैं, लेकिन वे एक दूसरे से जुड़ी हैं। एक दूसरे पर निर्भर हैं, एक दूसरे को उभारती हैं। एक अकेले शब्द का अर्थ अलग होता है, कुछ शब्द जुड़ कर जब एक वाक्य बनते हैं तो उनका अर्थ व्यापक हो जाता है। सरल भाषा वही है जो उपर्युक्त चारों क्रियाओं में सहज हो। बच्चा घर में अपनी देशज भाषा- बुंदेली, मालवी, ब्रज या राजस्थानी इस्तेमाल कर रहा हो और स्कूल में उसे खड़ी बोली में पढ़ाया जा रहा हो। उसके बालने, समझने, सीखने और पढ़ने की भाषा में जैसे ही भेद होता है, वह गड़बड़ा जाता है और पुस्तकों में अपनी ऊब को खड़ा पाता है।

व्यक्तित्व के विकास में भाषा एक कुंजी है, अपनी बात दूसरों तक पहुंचाना हो या फिर दूसरों की बात ग्रहण करना, भाषा के ज्ञान के बगैर संभव नहीं है। भाषा का सीधा संबंध जीवन से है और यही बच्चे को परिवार, समाज से जोड़ती है। भाषा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य बालक को सोचने-विचारने की क्षमता प्रदान करना, उस सोच को निरंतर आगे बढ़ाना, सोच को सरल रूप में अभिव्यक्त करने का मार्ग तलाशना होता है।

अब जरा देखें कि मालवी और राजस्थानी की कई बोलियो में ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ होता है और बच्चा अपने घर में वही सुनता है। लेकिन जब वह स्कूल में शिक्षक से या अपनी पाठ्यपुस्तक में पढ़ता है तो उससे संदेश मिलता है कि उसके माता-पिता ‘गलत’ उच्चारण करते हैं। सभी जनजातीय बोलियों में हिंदी के स्वर-व्यंजन में से एक चौथाई होते ही नहीं हैं। असल में आदिवासी कम में काम चलाना और संचय न करने के नैसर्गिक गुणों के साथ जीवनयापन करते हैं और यही उनकी बोली में भी होता है। लेकिन बच्चा जब स्कूल आता है तो उसके पास बेइंतिहा शब्दों का अंबार होता है जो उसे दो नाव पर एक साथ सवारी करने की मानिंद अहसास करवाता है।

बच्चा ठीक से पढ़ सके, उसका आनंद उठाए और समझ सके, इसके लिए सबसे पहले नीरस पुस्तकों को बदलना होगा। बारह या सोलह पृष्ठ की रंग-बिरंगी छोटी कहानी वाली, जिसमें साठ फीसद चित्र हों, ऐसी पुस्तकें बच्चों के बीच डाली जाएं, इस उम्मीद के साथ कि इसकी कोई परीक्षा नहीं होगी। उसके बाद पाठ्यपुस्तक हो, जिसमें स्थानीय परिवेश, पाठक बच्चों की पृष्ठभूमि आदि को ध्यान में रख कर सकारात्मक सामग्री हो।

चित्र की अपनी भाषा होती है और रंग का अपना आकर्षण। मनोरंजक कहानियों और चित्रों की मदद से बच्चे बहुत से शब्द पहचानने लगते हैं और वे उनका इस्तेमाल सहजता से अपनी पाठयपुस्तक में भी करने लगते हैं। भाषा की लिपि को पहचानना और अर्थ ग्रहण करना, फिर उन शब्दों को दूसरी जगह पहचानना। इस प्रणाली में बच्चे तेजी से पढ़ने की दक्षता हांसिल करते हैं।

अब समय की मांग है कि रटंतू व्यवस्था को अलविदा कहा जाए। जैसे ही बच्चा सीखने, पहचानने और उसे समझने की पूरी प्रक्रिया को एक साथ अपना कर उसमें चुनौती और आनंद ढूंढ़ने लगता है, शिक्षा उसके लिए एक रोमांच और कौतूहल बन जाती है। विभिन्न ध्वनियों के बीच भेद और उसे लिखने में अंतर सीखने के लिए सुनने की बेहतर दक्षता विकसित करना अनिवार्य है और इस राह की बाधाओं को दूर करने में कहानी कहना या गैरपाठ्य पुस्तकों से चित्र या कठपुतली या अन्य माध्यम के साथ कहानी कहना बेहद कारगर हथियार है।

स या ष का भेद, तीन तरह की र की मात्रा का अनुप्रयोग और लेखन जैसी जटिलताएं सीखने में इस तरह की पुस्तकें और कहानियां रामबाण रही हैं। काश प्राथमिक स्तर पर पाठ्य-पुस्तकों का वजन कम कर, रटने की पारंपरिक प्रक्रिया से परे चित्र और शब्द का सम्मिलन कर अपनी कहानी गढ़ने और समझने जैसी प्रक्रियाओं को अपनाया जाए तो पढ़ने-समझने और सीखने की प्रक्रिया न केवल आसान हो जाएगी, वरना बच्चों के लिए भी खेल-खेल में सीखने जैसी होगी।

ध्यान रखने की जरूरत है कि प्राथमिक कक्षाओं में सीखने की पहली कड़ी है सुनने और सहेजने की दक्षता का विकास। आमतौर पर इसे एकालाप मान लिया जाता है, यानी शिक्षक कहेगा और बच्चा सुनेगा। जब सुनने की क्षमता के विकास के लिए संवाद की पद्धति अपनाई जाती है तो बच्चे में खुद को अभिव्यक्त करने की क्षमता का विकास होता है और यही पढ़ने का प्रारंभ है।