निधि शर्मा

हद तो तब हो जाती है जब घर की बच्ची को कोई बाप या भाई ही अपनी हवस का शिकार बना लेता है। निश्चित ही उस परिवार की मां खुद को ही इस दुनिया में बेटी लाने के लिए कोसती रहती होगी!

विडंबना यह है कि परिवार अपनी बेटी को आत्मनिर्भर बनाने के लिए घर से दूर नौकरी करने की अनुमति देता भी है तो न जाने कितनी लड़कियों की मजबूरी का फायदा उठा कर उन्हें मार दिया जाता है या मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों और अपराध के ऐसे कितने उदाहरण दिए जाएं? कहां से शुरू किया जाए और कहां खत्म हो? यह दुविधा खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही। बस मन में एक ही सवाल घूमता रहता है कि कैसे इन अपराधों पर पूरी तरह रोक लगाई जाएगी और क्यों एक महिला स्वतंत्र देश में आजादी के साथ घूम नहीं सकती?

हममें से अधिकतर लोग यही सोचते हैं कि जब उनकी बेटी घर से बाहर निकलती है तो वह सबसे ज्यादा असुरक्षित होती है। लेकिन सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं द्वारा किए गए अध्ययन बताते हैं कि महिलाओं के खिलाफ होने वाली शारीरिक हिंसा के सत्तर फीसद मामले तो घर के अंदर ही होते हैं। दूसरी तरफ बलात्कार के नब्बे फीसद मामलों में आरोपी उनके परिवार का ही कोई सदस्य, रिश्तेदार या दूर का कोई जानने वाला होता है। हमारे देश में एक अन्य अपराध कन्या भ्रूणहत्या का है, जिसके अंतर्गत एक रिपोर्ट के मुताबिक हर साल देश में पांच लाख लड़कियां कोख में ही मार दी जाती हैं। उन बच्चियों को मारने का निर्णय घर में परिवार के सदस्य ही आपस में मिल कर लेते हैं। इसलिए यह सोचना गलत है कि महिलाओं के खिलाफ अत्याचार हर स्थिति में घर के बाहर ही होगा।

इस परिप्रेक्ष्य में समस्या के मूल तक जाया जाए तो परिवारों में जहां लड़की और लड़के के पालन-पोषण और सामाजिक प्रशिक्षण में भेद किया जाता है। लड़की के जन्म से ही उसे परिवार का अन्य या बाहरी सदस्य समझ कर दोहरा रवैया अपनाया जाता है और बेटे को कुछ भी करने की पूरी स्वतंत्रता दी जाती है। बेटे को मिली इसी स्वतंत्रता पर लगाम नहीं लगाई जाती है तो यह आशंका खड़ी होती है कि यह बेलगाम आजादी पता नहीं कब अपराध बन जाए।

इस पितृसत्तात्मक समाज में कमोबेश महिला को कमजोर समझा जाता है। जबकि पुरुष वर्ग को बचपन से ही ’माचो मैन’ यानी हावी होने वाले व्यक्ति का दृष्टिकोण सिखाया जाता है। यही वजह है कि पुरुष द्वारा किसी महिला या बेटी के प्रति हिंसा करने में कोई देरी नहीं लगती, क्योंकि उन्हें लगता है कि कमजोर वर्ग हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यही सोच महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा का सबसे बड़ा मूल कारण है।

सबसे पहले यह समझना होगा कि अगर प्रकृति ने महिलाओं की शारीरिक संरचना को ऐसा बनाया है तो उसका कारण प्रजनन क्षमता को पूर्ण करना है, न कि यह सुनिश्चित करना कि कौन घर के बाहर का काम करेगा और कौन अंदर का काम करेगा। इसलिए समाज को चाहिए कि बचपन से ही अच्छे संस्कारों से महिलाओं के प्रति समानता और आदर की भावना लाएं। खासतौर पर लड़कों को बचपन से यह दृष्टिकोण देने और सिखाने की जरूरत है। अगर संकुचित विचारों, मूल्यों और धर्म की आड़ में महिला को कमजोर किया गया तो यह असमानता की खाई और चौड़ी होती जाएगी और उनके प्रति अत्याचार को समाज की अप्रत्यक्ष सहमति माना जाएगा।

संविधान के अनुसार पुरुष और महिलाएं समान हैं, लेकिन सामाजिक तौर पर दोनों में असमानता की दीवार खड़ी कर दी गई है। दुर्भाग्य से इस सोच को बढ़ावा देने वालों में पुरुष और कुछ महिलाएं दोनों है। विशेषकर कुछ सक्षम वर्ग विशेष की महिलाओं को समझना चाहिए कि उनकी ऐसी सोच का खमियाजा सभी महिलाओं को भुगतना पड़ता है। इस समस्या का एक अन्य पहलू यह है कि महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा को रोकने के लिए कड़े कानून बनाए जाएं।

लेकिन कई बार लगता है कि वे मंत्री या विधायक क्या कानून बनाएंगे जो कहीं न कहीं किसी बेटी के बलात्कार, हत्या या दहेज जैसे संगीन आरोपों में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं! इसलिए जनता को भी चाहिए कि इस मुद्दे पर एकमत हो और नीति-निर्माताओं से सवाल पूछें। तभी हम आशा कर सकते हैं कि सरकारें महिला सुरक्षा के प्रति गंभीरता से सोचेंगी और उनके प्रति हो रहे जघन्य अपराध के लिए कागजों पर बने कानूनों से बाहर निकल कर कठोर सजा का प्रावधान करेगी। यह मुद्दा सिर्फ सुरक्षा का नहीं, बल्कि दुनिया की आधी आबादी के मानवाधिकारों का है।