क्रिकेट के कारण देश की राजनीति में नैतिकता का युद्ध छिड़ गया है। नैतिकता के सवाल हर तरफ हैं लेकिन जवाब की नैतिकता कहीं नहीं दिख रही। नैतिकता आज नीयत और सत्ता नीति के बीच में पिस कर घुल गई है। विपक्ष में रहते हुए जिस नैतिकता को निभाने का हवाला दिया जाता है, सत्ता में रहते हुए उसी को ताक पर रख दिया जाता है। आज बदले पक्ष-विपक्ष ने नैतिकता को और नीति को इच्छानुसार बदल डाला है। ललित मोदी ने कांग्रेस और भाजपा दोनों के नेताओं को क्रिकेट में अपने खेल का खिलाड़ी बनाया था।

दोनों नैतिकता के भोथरे नाखून दिखाने में लगे हैं। सत्ता में नैतिक गिरावट ‘नेकनीयत’ हो जाती है। खेल में नेक नीयत और ठोस नीति से ज्यादा जरूरी परिपक्व नैतिकता होती है। राजनीति के बाद अगर कोई खेल बचता है तो वह क्रिकेट कहा जाने लगा है। क्रिकेट की लोकप्रियता ने उसे कामधेनु गाय बना दिया है। ऐसी गाय जिसे हर कीमत पर दुहना सत्ता में बने रहने का प्रमाण है। आज क्रिकेट की लोकप्रियता और दर्शकों के प्रेम ने क्रिकेट नियंत्रण के भारतीय संघ को सबसे रईस खेल संघ बना दिया है। लेकिन खेल चलाने वाले और उनके राजनीतिक आका इसको अपनी बपौती मानने लगे। नेताओं को खेल खिलाने वाले ललित मोदी ही उनकी दाल में कंकड़ लगने लगे।

ललित मोदी सन 2005 में खेल के धंधे में आए थे। बाजार को खेल में लाने के चक्कर में उनने खेल को ही बाजार बना दिया। मैदान पर खेला जाने वाला क्रिकेट टीवी पर होने लगा। खेल आयोजन में प्रायोजन का धंधा चल निकला। फिर ललित मोदी आइपीएल की इंडियन पैसा लीग लेकर आए तो खिलाड़ी भी बिकने लगे। खेल के सहारे नई-नई वस्तुएं बेची जाने लगीं।

उद्योपतियों ने टीम के मालिकाना हक खरीदे। खिलाड़ियों की मंडी सजी। आइपीएल के बीसमबीस से बीसमचालीस की गुंजाइश और आशा लगाई गई। क्रिकेट में धन तो आया मगर अहं ने मोदी का खेल बिगाड़ दिया। क्योंकि क्रिकेट को खेल से तमाशा बना दिया गया था। खेल के धंधे यानी आइपीएल की जब शुरुआत हो रही थी तो ललित मोदी ने इसको कामधेनु बता कर धनाढ्यों को आसान धन कमाने और मौजमस्ती में शामिल होने का न्योता दिया।

कुछ घरानों और सत्ता में लिप्त नेताओं को आने वाले अपार धन को ठिकाने लगाने का मौका मिला। साफ क्रिकेट ही काले धन को सफेद कर सकता था। अचानक क्रिकेट के बहाने देश में हर तरह का और सभी तरफ से धन आने लगा। दो-तीन साल में ही आइपीएल दुनिया की सबसे रईस लीग हो गई। ललित मोदी जब आइपीएल के आयुक्त हुए तो बीसीसीआइ के अध्यक्ष थे शरद पवार और उपाध्यक्ष थे राजीव शुक्ला और अरुण जेटली। यानी उनके फैसलों के भागीदार नहीं तो जानकार कांग्रेस, भाजपा और राकांपा आदि कई राजनीतिक दलों में थे।

क्रिकेट और उससे जुड़े फैसलों में ललित मोदी की तानाशाही झलकने लगी। वे क्रिकेट के माई-बाप बन बैठे और आइपीएल को अपना बच्चा बताने लगे। धन के घपले सामने आए। आइपीएल के टीवी प्रसारण अनुबंध ने सारे रिकार्ड तोड़े। यहां तक कि नाजायज लगने लगे। फिर देश में आम चुनाव होने के कारण तानाशाही में मोदी इंडियन प्रीमियर लीग को दक्षिण अफ्रीका ले गए। वहीं टीवी पर विज्ञापन बढ़ाने के लिए बीच पारी में ‘स्ट्रेटेजिक ब्रेक’ का आविष्कार हुआ। इसके लेन-देन का कोई हिसाब संघ के खातों में नहीं मिला है।

ललित मोदी अगर खेल को मनमर्जी से चला रहे थे तो दिग्गज नेता उनकी हठधर्मी से निजात चाहते थे। जब मोदी पर आरोप ज्यादा हुए तो उच्चस्तरीय कार्रवाई की नौबत पैदा हुई। तब अदालती कार्यवाही से बचने की वकालती सलाह मान कर मोदी लंदन भाग गए। 2010 से वे वहीं रह रहे हैं। उनके भारत आने पर ही आरोप सिद्ध किए जा सकते हैं। सुरक्षा का बहाना देकर वे लौटने से कतराते रहे हैं। ललित मोदी के खिलाफ फेमा यानी विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम के उल्लंघन की जांच चल रही है। फेमा उल्लंघन के आरोप भारत में रहने वाले कई महानुभावों पर हैं, जिनके मामले सालों से अदालतों में चलते आ रहे हैं। फिर मोदी को कैसे अदालती कार्यवाही से बचा कर लंदन में रहने दिया जा रहा है?

जब देश चलाने की आकांक्षा रखने वाले खेल चलाने में लगते हैं तो मोदी जैसों के सिर पर ही ठीकरा फूटता है। विदेशमंत्री का भगोड़े आरोपी की मदद करना और सुषमा स्वराज का दो दशक पुरानी पारिवारिकता में मदद करना, नैतिक विरोधाभास है। नेक नीयत और सरकारी नीति का अंतर नेता जानते हैं, मगर मानते भी हैं क्या? देश के विदेशमंत्री को भगोड़े के लिए न्योछावर नहीं किया जा सकता। राजनीति के खेल से खेल की राजनीति कैसे चलाई जा सकती है? क्रिकेट नैतिकता भरा पारदर्शी खेल है। इसलिए यह क्रिकेट कतई नहीं है।

संदीप जोशी

 

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