धारणा एक प्रक्रिया का हिस्सा है। धारणा का कोई ठोस आधार नहीं भी हो सकता है। यह भी संभव है कि किसी खास धारणा के पीछे पूर्वग्रह की भावना हो। धारणा के बारे में वैसे तो समाज में ढेरों उदाहरण मिलते हैं, जिन्हें वैज्ञानिक अध्ययनों में आसानी से खारिज किया गया है। मगर चूंकि धारणा भावनाओं पर आधारित होती है, इसलिए समाज में काफी तेजी से फैलती है। और कई बार तो अपनी जड़ें मजबूत कर लेती है। हिंदी फिल्म ‘एक रुका हुआ फैसला’ एक अंग्रेजी फिल्म ‘ट्वेल्व एंग्री मेन’ का हिंदी रूपांतर है। यह फिल्म धारणा के बारे में ठीक से समझने में काफी मदद करती है। फिल्म दिखाती है कि एक नौजवान पर अपने पिता के कत्ल का इल्जाम है। अदालत बारह लोगों को इस आरोप को सही या गलत ठहराने का जिम्मा सौंपती है।

इस मसले पर उन बारह लोगों के बीच बहस होती है। उनमें से ग्यारह लोग लड़के को आरोपी और दोषी मानते हैं। उनके बीच सिर्फ एक व्यक्ति पूरी तरह से संतुष्ट नहीं होता है कि वह नौजवान ही कातिल है। वह कहता है कि नौजवान आरोपी जरूर है, लेकिन उसके कातिल होने का पर्याप्त सबूत नहीं है। हो सकता है कि वह निर्दोष हो।

जिन ग्यारह लोगों ने उस लड़के को कातिल बताया, उनके पास इस राय के लिए कोई ठोस आधार नहीं था। वे केवल अपनी भावनाओं या पूर्वाग्रहों के आधार पर ही वे अपने संदेह को सबूत के रूप में पेश कर रहे थे। कहानी के अंत में बारहों लोगों के बीच उस एक व्यक्ति ने अपने ठोस तर्कों और जिरह के बाद बाकी ग्यारह लोगों की धारणा को बदल दिया। इस तरह, वह लड़का निर्दोष साबित हुआ।

दरअसल, हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में धारणाओं की भूमिका इतनी बड़ी होती है कि कई बार हम उनसे प्रभावित होकर फैसला भी ले लेते हैं। हाल ही में एक युवक से रूबरू होने का मौका मिला। अभिषेक दिल्ली में एक निजी संस्थान में संचार एवं पत्रकारिता में स्नातक की पढ़ाई कर रहा है। बचपन से उसके दिमाग में कई धारणाओं ने जगह बना ली थी। उसकी वजह सिर्फ यह थी कि ‘ऐसा लोग कहते हैं!’ उसके मुताबिक, अपनी उस राय के पीछे कोई ठोस कारण नहीं होता था। क्लास में पढ़ाते हुए मैंने उसकी कई धारणाओं को अध्ययन के आधार पर तोड़ा। भारत में यह धारणा आम है कि अगर कोई मुसलिम पहचान का व्यक्ति अपराधी है या आपराधिक प्रवृत्ति का है तो उसे सीधे आतंकवादी के तौर पर देख लिया जाता है। लेकिन इसी तरह का कोई व्यक्ति हिंदू पहचान वाला हो तो उसे केवल सामान्य अपराधी माना जाता है। अभिषेक भी इसी धारणा के साथ बड़ा हुआ। उससे लगातार बात करने के बाद उसके भीतर बैठी इस तरह की कई धारणाओं को तोड़ने में मदद मिली।

अब वह तर्कों के साथ अपनी बात रखने की कोशिश करता है। इस बीच पाठ्यक्रम का हिस्सा होने के कारण वह एक निजी टीवी चैनल में प्रशिक्षु के रूप में यानी इंटर्नशिप करने गया। इसी बीच पठानकोट में आतंकवादी हमले की घटना सामने आई। घटना के समय अभिषेक अपने उस दफ्तर में था। जब भी देश में आतंकी घटना होती है तो हमारी सरकार जांच और कोई ठोस निष्कर्ष के सामने आए बिना पाकिस्तान का नाम लेकर उसे कठघरे में खड़ा करती है। संचार माध्यमों से होते हुए सरकार की यह राय आम जनता के बीच पहुंचती है और देश की एक बड़ी आबादी भी सरकार के इस निर्णय को धीरे-धीरे सही मानने लगती है। जबकि तथ्य दूसरे भी हो सकते हैं।

कई बार सरकार भी तथ्यों के सामने के लिए इंतजार करने को कहती है, लेकिन तेजरफ्तार टीवी मीडिया के पास शायद इतना धीरज नहीं है। खैर, जिस टीवी चैनल में अभिषेक प्रशिक्षु था, वहां के एक वरिष्ठ पत्रकार ने पठानकोट की घटना के बाद अन्य चैनलों की देखादेखी इसमें सीधे पाकिस्तान के हाथ होने की बात दर्शकों तक पहुंचाई। अभिषेक ने यह चुपचाप देखा, लेकिन थोड़ी देर बाद उसने उस वरिष्ठ पत्रकार से जानना चाहा कि सर, पठानकोट हमले का अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ, मगर हमने कैसे पता लगा लिया कि इसमें पाकिस्तान का ही हाथ है! क्या कोई इतना मजबूत ‘स्रोत’ है जो घटना के बारे में इतनी जल्दी बता देता है! क्या हमें देश की खुफिया एजेंसियों और सरकार के आधिकारिक बयान का इंतजार नहीं करना चाहिए? अभिषेक की यह बात सुन कर उस पर तेज चिल्ला कर उसे चुप रहने को और किसी तरह अपना इंटर्नशिप पूरा करने को कहा गया।

सवाल है कि क्या पढ़ाई के दौरान किसी तरह के सवाल की गुंजाइश नहीं होती है! मैं इस समय हजारों सवाल पैदा करने वाले विद्यार्थियों को खड़ा होते देखना चाहता हूं, ताकि समूची पत्रकारिता का परिदृश्य किसी पूर्व-धारणा के बजाय ठोस तर्कों और अध्ययनों की बुनियाद पर टिका हो।