भारतीय संस्कृति और चिंतन सहिष्णु, उदार और गुणग्राही रहा है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने इसे और भारतीय जनमानस को महामानव सागर की संज्ञा दी थी। भारतीय संस्कृति और चिंतन की सबसे बड़ी विशेषता विविधताओं को अपनाना, उनकी मान्यता और स्वीकृति है। भारतीय संस्कृति में अनेक सांस्कृतिक धाराएं समय-समय पर विभिन्न स्रोतों से आती और विलीन होती रही हैं। एकता का धागा विभिन्न प्रकार और रंगों के फूलों को गूंथ कर माला का आकार देता रहा है। इस विशाल देश के वासी अनेक भाषाएं बोलते हैं। अनेक धर्मों के उपासक हैं। अनेक उपासना पद्धतियों को मानते हैं। इस्लाम और ईसाई धर्मों के आने के पहले भी हमारे यहां छह प्रकार की आस्तिक दर्शन धाराएं रहीं हैं। इनके अलावा जैन, बौद्ध, चार्वाक आदि अनेक ऐसे दर्शन और धर्म रहे हैं, जिनको वैदिक ऋषियों ने नास्तिक उपाधि से नवाजा। इनको नास्तिक कहने का मूल कारण यह था कि इन दर्शनों और धर्मों का स्रोत वैदिक धारा नहीं, बल्कि श्रमण धारा थी।
श्रमण संस्कृति की अनेक मान्यताओं और विश्वासों को भारतीय संस्कृति के प्रत्येक दर्शन और धर्म ने ग्रहण किया है। उदाहरण के लिए वैदिक संस्कृति में पूजा नहीं थी। वहां पूजा के स्थान पर केवल यज्ञ होते थे। आज भी हिंदू धर्म के सनातनी लोग पूजा करते हैं और आर्यसमाजी यज्ञ करते हैं। आज के विचारकों को आग्रहविहीन और तटस्थ होकर यह विचार करना चाहिए कि भारतीय संस्कृति की जिस परंपरा ने वर्णाश्रम व्यवस्था और श्रोतस्मार्त धर्म को अंगीकार किया, उसका मूल क्या है। इसी प्रकार भारतीय संस्कृति की जिस परंपरा को नास्तिक कहा गया, उसका मूल क्या है। इन दो परंपराओं में एक को वैदिक या ब्राह्मण और दूसरी को समण या श्रमण नाम से अभिहित किया गया है।
श्रमण का अर्थ परिश्रम करना है। यह इस परंपरा की इस मान्यता को प्रकट करता है कि कोई अन्य हमारा भाग्य विधाता नहीं है। व्यक्ति अपना विकास अपने परिश्रम से स्वयं कर सकता है। व्यक्ति ही अपने सुख और दुख का कर्ता है। समन का अर्थ है समता भाव। सभी को आत्मवत समझना। सबके साथ आत्मवत आचरण करना। समाज के प्रत्येक सदस्य को समान मानना। जाति और वर्ण व्यवस्था में विश्वास न करना। शमन का अर्थ है अपनी वृत्तियों को संयमित करना। परिग्रह की सीमा का निर्धारण करना। वैदिक या ब्राह्मण के भी तीन लक्षण हैं- यज्ञ करना, कर्ता रूप में ईश्वर की मान्यता और यह मानना कि सब कुछ ईश्वर के अधीन है। नियति या भाग्यवाद में विश्वास करना।
समन और वैदिक परंपराओं के अभिलक्षण अब घुलमिल गए हैं। व्यक्ति हवन भी करता है और मंदिर में जाकर पूजा भी करता है। कर्मवाद और भाग्यवाद को भी मानता है। यह इसका प्रमाण है कि भारतीय संस्कृति उदार, गुणग्राही, समन्वयशील रही है।
आज हम आतंकवाद और कट््टरवाद के तीव्र और भयानक झंझावात से गुजर रहे हैं। आज हम ऐसे मोड़ पर खड़े हैं कि एक ओर विश्व संस्कृति के प्रसार के कारण बाजार की शक्तियां देशों की सीमाओं को समाप्त कर रही हैं और इनके कारण राष्ट्रवाद के स्थान पर अंतरराष्ट्रीय चेतना का विकास हो रहा है, वहीं दूसरी ओर धर्म, मजहब या रिलीजन के नाम पर अजीब तरह का कट््टरवाद पनप रहा है। इस खूनी कट््टरवाद का धर्म, मजहब या रिलीजन से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। मगर यह कैसी अजीब बात है कि आतंक का सारा खूनी खेल धर्म, मजहब या रिलीजन के नाम पर हो रहा है।
आधुनिक चिंतन ने ब्रह्मांड की परिकल्पना एक विराट मशीन के रूप में की है। जीवन की प्रगति और विकास के लिए, मशीनों द्वारा अधिक उत्पादन करने को अनिवार्य मान लिया गया है। औद्योगिक घरानों के हितों को संपादित करने में सरकारें व्यस्त हैं। सारे देश मशीनों द्वारा अधिक से अधिक उत्पादन करने, सामान की खपत के लिए मंडियों की तलाश करने, अधिक से अधिक पूंजी जुटाने की दौड़ में शामिल हैं। इसके लिए प्रकृति का निर्मम दोहन किया जा रहा है। ऐसे विकास से क्या लाभ, जिसके कारण आदमी न तो साफ हवा में सांस ले सके, न साफ पानी पी सके और न स्वस्थ रोटी खा सके।
इसका समाधान क्या है। विश्व की समस्त सरकारों और शक्तियों को आने वाली पीढ़ियों की जिंदगी के लिए आतंकवाद और कट्टरवाद का खूनी खेल छोड़ना होगा। परस्पर सहयोग की भावना को अंगीकार करना होगा। विश्व की कल्पना एक परिवार के रूप में करनी होगी। नया अर्थशास्त्र बनाना होगा। केवल अधिक पूंजी जोड़ने वाले विकास के मॉडल को तिलांजलि देनी होगी। समावेशी विकास और मर्यादित उपभोग के मॉडल का वरण करना होगा। अगर मनुष्य ने अपने उपभोग की सीमा का निर्धारण नहीं किया और अपनी कामनाओं पर लगाम नहीं लगाई तो विकास का तो सवाल ही नहीं उठता।