सुमित्रानंदन पंत ने लिखा है- ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान/ निकल कर आंखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।’ बुद्ध ने भी कहा था कि यह संसार दुखमय है। स्त्री-जीवन में यह दुख पुरुष के संसार की अपेक्षा अधिक मात्रा में और अधिक सघन है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियां हैं- ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी।’ कवियों, लेखकों, साहित्यकारों आदि ने स्त्री-जीवन का चित्रण करते हुए उसके दुख का ब्योरा खूब दिया। हर चीज का अपना दुख है। एक समय में तो तनाव और दुख को रचनात्मक होने की वजह से साहित्यकारों और लेखकों के लिए आवश्यक माना गया था। निराला, मुक्तिबोध, त्रिलोचन, नागार्जुन शमशेर जैसे लेखकों ने तनाव भरा और अभावग्रस्त जीवन जिया।

विजयदान देथा की कहानी पर आधारित एक फिल्म बनी थी ‘पहेली’। यह मुझे दुख की इस बहुआयामिता को चरितार्थ करने वाली फिल्म लगती है। इसमें नायिका का ब्याह एक ऐसे आदमी से हो जाता है जो शुद्ध व्यवसायी है। शादी की पहली रात भी वह पत्नी को छोड़ कर बही-खाते में डूबा रहता है। अगले ही दिन वह अपनी पत्नी को मां-बाप के आसरे छोड़ कर व्यापार के लिए नगर की ओर चला जाता है। इस बीच गांव की बावड़ी के समीप एक पेड़ पर रहने वाला ‘भूत’ उसकी पत्नी से उसके ही रंग-रूप और वेशभूषा में मिलता है। पत्नी उससे अपने दुख या अनुभव बताती है, ‘भूत’ उसका दुख बांट लेता है। महिला को उससे प्रेम हो जाता है और वह उसे ही अपना पति मान लेती है। आशय यह है कि एक ‘भूत’ जीवन में है और महिला के संपर्क में है और वही असली मनुष्य में तब्दील हो गया है और एक असली मनुष्य जो अपने जीवन को छोड़ कर चला गया है सही मायने में वही भूत हो गया। बाद में जब वह लौट कर आता है तो गांव में कोई उसे पहचानता तक नहीं है।

आज हम जिस समय में जी रहे हैं वहां दुख ही शायद ‘आनंद’ में तब्दील हो चुका है। पहले का यह सिद्धांत अब किसी काम का नहीं रह गया है कि दुख के बाद सुख आता है या आएगा। जब दुख नहीं तो सुख आएगा या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता और यह आकर भी क्या करेगा, जब उसे महसूस करने वाला मनुष्य ही नहीं बचे। कुल मिला कर यह अनुभूति का संकट है साहित्य में कि न दुख की अनुभूति हो पा रही है और न सुख की। बाजार यह होने नहीं दे रहा। अब यह निरा ‘आनंद’ रह गया है, जिस पर बाजार टिका हुआ है। इसके आगे कोई तर्क या सिद्धांत नहीं चलता। सारे तर्क, नियम-कानून कुंद हो गए हैं या फिर कर दिए गए हैं। यह खेल विज्ञापन से शुरू हुआ है जो वस्तु की मनचाही कीमत लगा रहा है और उसकी कृत्रिम मांग पैदा कर बाजार में माल बेच रहा है।

जाहिर है, मनुष्य की कीमत भी बाजार ने लगाई है। पर उसकी भावनाएं और उसका दिमाग दोनों की अलग-अलग कीमत और भूमिका बाजार ने तय की है। यही कारण है कि मनुष्य खुद एक उत्पाद यानी वस्तु में बदल गया है। पहले जहां मनुष्य में एक खूबसूरत दिल की तलाश की जाती थी और दिलरुबा को दिलकश समझा जाता था, वहीं आज उसकी जगह दिमाग ने ले ली है, ‘स्ट्रांग इज ब्यूटीफल’ के हसीन नारे के साथ। बाजार ने मनुष्य के दिमाग को जटिल बनाया है, क्योंकि हृदय के साथ ऐसा करना संभव नहीं था। अगर मनुष्य के भीतर कोमलता, भावना और संवेदना को दरकिनार कर दिया जाए, तो उसका अपने जीवन पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता और वह यांत्रिक होकर रह जाता है। यंत्र यह नहीं देखता कि कोई छोटा है या बड़ा, बच्चा है या बूढ़ा, औरत है या मर्द। वह बस मुनाफा देखता है।

बहरहाल, बाजार ने वर्ग, वर्ण, धर्म, जाति आदि से परे मनुष्य को मनुष्य का शत्रु बना कर खड़ा किया है। यह मानवता का हनन नहीं, उसका नाश है। हमारे पास अब संबंध नहीं, ‘कनेक्शन’ है, जो तात्कालिकता को समर्पित है और उसी से संचालित भी। इस मनुष्य विरोधी दर्शन का सबसे बड़ा हथियार है तकनीक। अब हम ऐसी तकनीक की चपेट में हैं जो हमें कहीं नहीं ले जा रही, बल्कि हमसे अधिक से अधिक ऊर्जा खींच रही है, एक मशीन जितनी। बदले में हमारे पास एक ऊब और खीझ भरी जिंदगी है, जिसकी कीमत कभी डॉलर तो कभी रुपए में अदा की जा रही है, लेकिन उससे जो शोषण हमारा हो रहा है उसकी परवाह किसी को नहीं है। कोई प्रतिरोध नहीं है। सब कुछ एक व्यवस्था के तहत हंसी-खुशी या कहें राजी-खुशी चल रहा है। स्थिति इतनी भयावह है कि जीने की तो खैर कोई सूरत है ही नहीं और मरो तो उससे पहले अपनी कब्र पर फूल चढ़ाने की भी इजाजत नहीं।