रामधारी सिंह दिवाकर

मुख्य रूप से हिंदी पट्टी में, जहां किताबों के लिए घर में कोई कोना-अंतरा नहीं बचा है, जहां पुस्तक-संस्कृति का लगभग विलोप-सा हो गया है और जहां की नई पीढ़ी के लिए साहित्य एक तरह से अस्पृश्य, उपेक्षित और अनादृत है, वहां कभी-कभी सुखद अनुभव दाघ-निदाघ में बादलों की छांव जैसे प्रतीत होते हैं। कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ मुझे इस बार देश की राजधानी दिल्ली में। दिल्ली जैसे महानगर की आपाधापी और सुविधाओं के अंबार सब कुछ डूबते जाने के बीच कुछ घर-परिवार ऐसे भी हैं जहां साहित्य के लिए, मानवीय संवेदनाओं के लिए जगह बची हुई है। हो सकता है कि ऐसे उदाहरण कम हों, लेकिन जब सामना होता है तो थोड़ी हैरानी भी होती है। हैरानी इसलिए कि जो हालात बन चुके हैं, उनमें उम्मीद कहीं दिखाई नहीं देती है।

मैं सोच भी नहीं सकता था कि अपार सुख-सुविधाओं के बीच जीने वाली कुछ ऐसी महिलाएं भी हैं दिल्ली में जो खोज-खोज कर किताबें खरीदती हैं और पढ़ती हैं। बहत्तर साल की एक ऐसी ही महिला हैं बीना जैन। हिंदी कथाकारों में अपनी पसंद के लेखकों की किताबों की दस-दस, पंद्रह-पंद्रह प्रतियां वे खरीदती हैं। जाहिर है, ऐसा केवल वे अपने लिए नहीं करतीं होंगी, बल्कि दस या पंद्रह किताबें खरीद कर वे अपनी ओर से ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच पढ़ने की संस्कृति की प्रसार करती हैं। वे एक अनौपचारिक गोष्ठी का आयोजन करती हैं। गोष्ठी की महिला सदस्य किसी खास उपन्यास या कहानी को पढ़ती हैं, मिल-बैठ कर उस पर बात करती हैं आपस में, फिर उसके लेखक को अनौपचारिक रूप से अपनी गोष्ठी में बुलाती हैं। किसी विषय पर भाषण देने के लिए नहीं, बल्कि पठित उपन्यास या कहानी पर बात करने के लिए।

बीना जैन को मैं बिल्कुल नहीं जानता था। वे कोई लेखिका भी नहीं हैं। सिर्फ एक सुपठित, सुसंस्कृत, सजग पाठक हैं। उन्होंने किसी प्रकाशक से मेरा फोन नंबर लेकर मुझसे संपर्क किया। संयोग से पिछले महीने मैं दिल्ली में था। सुखद आश्चर्य हुआ कि मुझ जैसे मामूली लेखक की लगभग सारी किताबें उन्होंने विभिन्न प्रकाशकों से प्राप्त कर ली हैं। सिर्फ तीन किताबें उन्हें नहीं मिल सकी हैं और उनके लिए वे प्रयासरत हैं। तीनों उपन्यास हैं। वे कोई शोधप्रज्ञ होतीं तो मैं समझता कि पीएचडी के लिए मेरी किताबें एकत्र कर रही हैं। लेकिन उन्होंने फोन पर बताया कि वे एक सामान्य पाठक हैं। उन्होंने मुझसे मिलने का समय निश्चित किया।

मैं शालीमार बाग में अपनी बेटी के यहां था। अपनी ही उम्र की किसी महिला के साथ वे मुझसे मिलने आर्इं। अपने साथ मेरा एक कहानी संग्रह भी लेती आई थीं। जिस कहानी पर उन दोनों महिलाओं को बात करनी थी, मैंने देखा, उस कहानी के चारों हाशियों पर अंगरेजी में पेंसिल से टिप्पणियां लिखी हुई हैं। कहानी थी ‘अलग-अलग अपरिचय’, जिसका ग्रामीण परिवेश कहीं से भी महानगर के उच्च मध्यवर्ग से नहीं जुड़ पाता था। कहानी में बेटा शहर में नौकरी करता है। पिता ने बेटे की पढ़ाई में गांव की अपनी जमीन बेच दी, लेकिन बेटा है कि मां-बाप की सुध नहीं लेता। बीना जैन और उनके साथ आर्इं महिला आश्चर्यजनक रूप से कहानी से प्रभावित थीं। दोनों संपन्न परिवार की हैं। दोनों के बेटे अमेरिका में चिकित्सक हैं। दोनों को बेटे-बहू से कोई शिकायत नहीं है। वे अमेरिका जाती रहती हैं, लेकिन दोनों में अपनी-अपनी निजता को लेकर वीरान-सा सूनापन है। खाली-खाली-सी संपन्न जिंदगी का अकेलापन!

शायद इसी अहसास से मेरी कहानी उनकी जिंदगी से जुड़ती थी। रिश्ते गांव के हों या नगर-महानगर के, आखिर होते तो मानवीय ही हैं! बीनाजी ने बताया कि उनके पति किसी बड़े पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। पति को बीनाजी का पढ़ना-लिखना सुहाता नहीं था, लेकिन पढ़ने की उनकी अदम्य जिज्ञासा मरी नहीं। आज उपांत की जिंदगी में सब कुछ शांत हो चला है, वे पढ़ने की अपनी लंबित प्यास बुझाने में लगी हैं। अपनी ओर से वे एक गोष्ठी का आयोजन करती हैं। वे मुझे अपनी गोष्ठी में आमंत्रित करने आर्इं थीं। मुझे सुखद अनुभव हुआ यह जान कर कि ऐसे लोग भी हैं। मेरा खयाल है कि ऐसे कितने दृश्य-अदृश्य पाठक भी या पाठक-समूह होंगे, जिनके लिए किताबें किसी जरूरत से कम नहीं हैं। ऐसे ही पाठकों से किताबें जिंदा रहेंगी। आवश्यकता रचनाकारों की सचेष्ट कोशिशों की भी है कि वे अपनी किताबें प्रकाशकों के भरोसे छोड़ कर निश्चेष्ट और निश्चिंत न हो जाएं, पाठकों तक खुद भी पहुंचें।

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