रमाशंकर श्रीवास्तव

यादों से दामन नहीं छूटता। सोचता हूं, अतीत की बातें याद न आएं, लेकिन न जाने कैसे वे मेरे पास आ जाती हैं। फिर नींद टूट जाती है। लोगों से सुना है और खुद भी पढ़ा है कि बीते दिनों को याद करने में कुछ रखा नहीं है। मान लेता हूं कि वे गलत नहीं कहते। मगर मानवता के उस इतिहास का क्या होगा, जिसमें केवल अतीत का ही वर्णन है! अतीत की ये घटनाएं हमें भविष्य में लड़ने की प्रेरणा देती हैं। बिना अतीत का सहारा लिए हम आगे का रास्ता कैसे साफ कर सकते हैं! कुछ लोग ऐसे चिंतन पर अंगुली उठाते हैं। वे कहते हैं कि जो पीछे देखते हुए आगे बढ़ेगा, वह तो धोखे में पड़ कर कभी गिर भी सकता है। एक मित्र मेरे इस चिंतन के घोर विरोधी हैं और इसलिए आलोचक भी हैं। कहते हैं, ‘निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय’। मगर मेरे कुटी छवाने पर वे अंगुली उठाते हैं। वे ऐसे मुहावरों को निरर्थक मान कर टाल देते हैं। लेकिन जब समय को इस तरह टुकड़े में बांट कर देखा जाएगा तो फिर पाने के लिए बचेगा क्या? देश-दुनिया में इतनी घटनाएं होती हैं, किन्हीं सद्कर्मों या व्यक्तियों के नाम पर बड़े-बड़े स्मारक खड़े कर दिए जाते हैं। क्या है उद्देश्य इन स्मृति-स्तंभों का?
मैंने इन पहलुओं पर खूब सोचा है। यहां तक कि इन्हें अपने स्मृति-पथ से हटा देने की कोशिश भी की है। मगर सारे प्रयास विफल हुए।

परिवार में पूजा हो रही थी। बुजुर्गों ने कहा कि अपने कुल देवता को स्मरण करो। उन अवदानों को मन से मत उतारो, जिन्होंने तुम्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है। आशीर्वाद आगे दौड़ने की शक्ति देते हैं। एक दिन बेटा मगन होकर अकबर महान और पृथ्वीराज चौहान के बारे में पढ़ रहा था। उसके दत्तचित होकर अध्ययन करने के पीछे यही उद्देश्य था कि उसके भीतर अतीत के प्रति श्रद्धा भाव बना रहे। शहर हों या देहात, आप घूम कर देख लीजिए। हरेक उत्सव में अतीत मुस्कराता हुआ आता है। वह मांगता कुछ नहीं, मगर हमसे सब कुछ ले लेता है। वर्तमान की सूखी ठठरी पर आप बिना अतीत का मुलम्मा चढ़ाए उसे जीवंत नहीं कर सकते। अतीत वर्तमान की सूखी ठठरी का प्राण है। मेरे घर-परिवार में जितने पर्व-त्योहार आते हैं, वे सभी उस अतीत की पूजा के लिए छटपटाते हैं। मेरे बुजुर्गों ने जब कहा कि मूर्तियों को हाथ जोड़ कर, सिर झुका कर नमस्कार करो, तो मैंने उन निर्जीव मूर्तियों को प्रणाम किया है। जानता हूं कि ये मिट्टी या पत्थर की प्रतिमाएं मुझे कुछ दे नहीं सकतीं। श्रद्धा और मेरा विश्वास ही मुझे कुछ देगा। इस संसार में अपना पथ प्रकाशित करने की प्रार्थना हरेक आदमी करता है।

तब मैं छोटा था, छह-सात वर्ष का बालक। आंगन में एक जटाधारी महिला साधु आई। ललाट पर सिंदूर की लंबी लकीर। प्रथम दर्शन में मन में भय समा गया। ऐसा चेहरा कभी देखा नहीं था। उनसे आंख मिलाते समय मैं भय से कांप उठा। मां ने मुझे ढांढ़स बंधाया। कहा कि इन्हें प्रणाम करो। मैंने भयग्रस्त होकर उनके आगे सिर झुकाया। वह हंसी तो मुझे लगा कि मैं प्रलय के मझधार में घिर गया। अब प्राण नहीं बचेंगे। मगर उनका आशीर्वाद मिला। जीवन में हजारों बार आशीर्वाद मिले। मगर उस महिला साधु की बात नहीं भूला।

यह हो नहीं सकता कि किसी के जीवन में कुछ घटित नहीं हुआ हो। अतीत की घटनाओं को सुन कर दशा उस टूटती-ढहती दीवार जैसी हो जाती होगी, जिसकी एक र्इंट हटाइए तो दीवार की कई र्इंटें भहरा कर गिरने लगती हैं। मुश्किल यही है कि हम समय पर बार-बार विचार करते हैं, हजार बार सोचते हैं, लेकिन उसे समझ नहीं पाते। ये साधु-संन्यासी, मुनि, ज्ञानी-विज्ञानी करते क्या हैं! वे अपने ढंग से समय पर ही तो विचार करते हैं। सच यह है कि हमने वक्त को न कल समझा और न आज समझ सके। वक्त का चेहरा ढंका हुआ है। उसे हम पहचान नहीं पाते। लेकिन हममें से बहुत सारे ऐसे हैं जो इस घमंड से भर जाते हैं कि उन्होंने वक्त को पहचान लिया। वक्त कल था और आज है, अगले दिन भी आएगा।

मैं उसे बार-बार टोकता हूं, उससे शिकायत करता हूं कि तुम हमें हंसाते-रुलाते हो, मगर हमारे हाथ नहीं आते। बड़े-बड़े दिग्गजों, चिंतकों और बाहुबलियों ने दंभ भरा कि उन्होंने समय को पहचान लिया। पर ऐसा हुआ कहां? यह पहलू कितना रोचक है कि हम जिसे पहचानना चाहते हैं, वह सामने आकर भी छिपा रहता है। आखिर हम सब कुछ उस अदृश्य शक्ति पर छोड़ देते हैं। यह सिलसिला युगों से चलता आया है और युगों तक चलता रहेगा। आप हम इस धरती पर आकर वक्त के साथ आंख-मिचौनी खेलते रहेंगे। इस खेल का अंत कभी नहीं होगा।