राय बहादुर सिंह
जरा सोच कर देखिए कि एक हजार मीटर यानी एक किलोमीटर की दूरी भला कितनी हो सकती है और इसे तय करने में किसी साधारण व्यक्ति को कितना समय लग सकता है! यों अमूमन लोग इस दूरी को गाड़ी से तीन-चार मिनट में तय कर लेते हैं। पैदल दस से पंद्रह मिनट। लेकिन मैं जिन दो बच्चियों की बात कर रहा हूं, उन्हें यह दूरी तय करने में एक लंबा समय लग गया। दरअसल, यह दूरी उनके घर से स्कूल तक की है। कुछ समय पहले अचानक उन्होंने स्कूल आना छोड़ा तो किसी ने उन पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन बाद में भी वे स्कूल नहीं आ रही थीं। यह कोई सामान्य बात नहीं थी। उन बच्चियों के बारे में उनकी कक्षा के बच्चों से पता करने को कहा तो अगले दिन खबर मिली कि दोनों खेत में काम करने जाती हैं। मगर फसल तो कट गई है, फिर खेत में अब करने को क्या बचा है?
अगले दिन उन खेतों की ओर जाने का मैंने निश्चय किया। भाषा की कठिनाई की वजह से मैंने एक बच्चे को साथ ले लिया। उन बच्चियों के घर के बाहर रुका तो उनकी दादी से मिलना हुआ। उनका लकीरों से पटा चेहरा देख कर यह मालूम हुआ कि उनका अतीत बहुत मुफलिसी में बीता है। खेत में सोयाबीन की फसल को थ्रेसर में डाल कर उसकी शक्ल बदली जा रही थी। वहां गर्द में सनी एक बच्ची स्कूल की वर्दी पहने काम कर रही थी। पहले उसने मुझे अनदेखा-सा कर दिया। फिर वह अपना काम करती रही। उसके साथ काम करने वाली औरतें जब मुझसे कुछ बात करतीं तो वह भी हंसने लगती। मुझे लगा कि मेरे वहां होने से वह बच्ची सहज महसूस नहीं कर रही है। मैंने जाते-जाते उसे आवाज दी कि स्कूल नहीं आना है? उसने कहा- ‘कल से आऊंगी’। फिर मुस्कराते हुए अपने काम में जुट गई। उसकी मुस्कराहट में उस वक्त न जाने कितनी विवशता झलक रही थी।
मैं वहां यह जानने की कोशिश करता रहा कि इतनी कम उम्र में उसने काम के लिए स्कूल आना भी छोड़ दिया, जहां उसे दूध और खाना भी मिलता है। गांव के उसके सारे दोस्त स्कूल जाते हैं, लेकिन वह उदासीन है। अगले दिन वह स्कूल आई। मैंने उससे जानना चाहा कि उसे काम करने का हर दिन कितने रुपए मिलते हैं। उसने बताया- ‘जो पैसे मिलते हैं, वह घर में दे देते हैं। माता-पिता और भाई गुजरात में काम करने गए हैं। मालिक पैसा नहीं देता, इस कारण घर के लिए खेत में काम करना पड़ता है।’ गांव में वह दादी और दो बहनों के साथ रहती है।
यह कैसा समाज और कैसी व्यवस्था है, जिसके कानों को सुनाई नहीं देता और आंखों को ऐसे बच्चों की विवशता नजर नहीं आती। इतनी कम उम्र में किताबों का थैला छोड़ कर कंधे परिवार का बोझा उठाने को तैयार। इस स्थिति तक पहुंचने के क्या चरण रहे होंगे? साथी शिक्षक बताते हैं कि दोनों बच्चियां पिछले साल ही पांचवीं पास कर गई थीं। लेकिन आगे पढ़ने के लिए स्कूल में नहीं गर्इं। दूसरे साथी शिक्षक ने दोनों बहनों के वर्तमान और अतीत को देखते हुए क्षण भर में यह कह दिया कि ये आगे नहीं पढ़ेंगी, क्योंकि इनके घर में पैसों की समस्या है।
ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में लड़की आठवीं कक्षा तक पढ़ ले तो बड़ी बात मानी जाती है और अगर बारहवीं कर ले तो मानो उसने दुनिया ही जीत ली। लेकिन क्या सिर्फ कक्षा पास कर लेना ही सब कुछ है? जो बच्चे लिख-पढ़ नहीं पाते, वे चुप बैठे रहना ज्यादा पसंद करते हैं। क्या यह सिर्फ उन दोनों बच्चियों की बात है या पढ़ाई बीच में छोड़ने वाले और भी बच्चे हैं? ऐसे तमाम बच्चे दरअसल हालात के नहीं, बल्कि शिक्षा-व्यवस्था के खुद-मुख्तारों के शिकार हैं। स्कूल की परीक्षा पास करने के बाद भी अगर हम बच्चे को चार पंक्तियां लिखने और पढ़ने के लायक नहीं बना पाए, तो उसका विश्वास हम पर कब तक बन पाएगा? मैंने उन दोनों बच्चियों को एक दिन कहा कि देखना, तुम एक दिन पुलिस बनोगी, तो उनकी आंखों में आत्मविश्वास से भरी चमकती खुशी झलक गई थी।
थोड़ी कोशिशों के बाद ही कुछ दिनों के भीतर जब वह बोर्ड पर पूरी कक्षा के सामने शब्द मिला कर लिखने लगी, तो उसकी खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी।
आजकल वह स्कूल आकर बहुत खुश रहती है। मुझे उन बच्चियों में असीम संभावनाएं नजर आती हैं। फिर वह क्या वजह थी कि कुछ शिक्षक कहने लगे थे कि वे आगे नहीं पढ़ पाएंगी। शायद वे व्यवस्था के उस रवैये से परिचित होने के नाते ऐसा कह रहे थे, जिसमें गरीब तबके के बच्चे-बच्चियों को पढ़ाई में आगे का सफर तय करने के लिए अनुकूल वातावरण नहीं दिया जाता है। प्रतिकूल वातावरण में तो अक्सर अंकुरित होते बीज भी मुरझाते हुए सूख जाते हैं।