बृजमोहन आचार्य
यों विश्व की सभी संस्कृतियों में मां का विशेष दर्जा माना जाता रहा है। विश्व की अन्य संस्कृतियों के मुकाबले भारतीय संस्कृति का जिक्र आता है तो मां को भगवान से भी बड़ा बताया जाता है। लेकिन कुछ दिन पहले यह खबर जान कर मन काफी दुखी हुआ कि देश के महानगर कोलकाता में मॉल जैसी आधुनिक कही जाने वाली जगह पर एक मां को उसकी सात महीने की बच्ची को स्तनपान कराने के लिए थोड़ी-सी जगह भी नहीं दी गई और मॉल के सुरक्षाकर्मियों और दुकानदारों ने उस महिला को यह कह कर एक जगह से हटा दिया कि अगर बच्ची को स्तनपान कराना है तो टॉयलेट में चली जाए। जब महिला से यह बात कही गई तो उसे नागवार गुजरी, लेकिन मां का ममत्व भी ऐसा होता है कि चाहे वह भूखी सो जाए, पर अपनी संतान को कभी भी भूखा नहीं सुलाती। अपनी सात माह की बच्ची को स्तनपान कराने के लिए वह महिला मॉल में कभी सीढ़ियों की ओर तो कभी किसी अन्य ओट में जगह तलाश करती रही, लेकिन उसे सुरक्षित स्थान नहीं मिला। आखिर एक दुकानदार ने अपनी दुकान के ट्रायल रूम में दूध पिलाने के लिए सुरक्षित जगह उपलब्ध कराई।
यह एक तरह से समूचे पुरुष समाज को शर्मिंदा करने वाला प्रसंग है। दूसरी तरफ एक विदेशी मां ने अपने फर्ज को इस तरह निभाया कि उसे अपने बेटे की अस्थियों का विसर्जन करने के लिए भारत लौटना पड़ा। दरअसल, स्पेन निवासी एक विदेशी महिला के बेटे की सड़क हादसे में मौत हो गई थी। उसके पुत्र की अंतिम इच्छा थी कि उसकी अस्थियों का विसर्जन शिव की नगरी काशी में किया जाए। अपने बेटे की इच्छा पूरी करने के लिए मां उसकी अस्थियां लिए भारत आई तो उसके दिल में क्या गुजरी होगी यह मां ही बता सकती है। स्पेन के बार्सिलोना की बुजुर्ग महिला मारिया टेरेसा ने अपने बच्चे की अस्थियों का विसर्जन काशी में भारतीय संस्कृति के अनुसार करवा कर बेटे की अंतिम इच्छा को पूरा किया।
देखने की बात यह है कि भारतीय संस्कृति में जिस मां को भगवान से भी बड़ा माना जाता है, वहां इसी संस्कृति में लोगों का व्यवहार ऐसा है कि यह नौबत आ गई कि मां को बच्ची को स्तनपान कराने के लिए जगह तक नहीं मिल पाई। बाद में सवाल उठने पर मॉल के संचालकों ने यह कह कर पल्ला झाड़ने की कोशिश की कि स्तनपान कराने के लिए कोई अनुमति नहीं है और घर के मसलों को घर पर ही निपटाएं। यह सवाल उठ सकता है कि ऐसे इक्का-दुक्का मामलों को उदाहरण नहीं बनाया जाना चाहिए। लेकिन यह कोई अकेला मामला नहीं है। महिलाओं के प्रति समाज की दृष्टि क्या है, यह आए दिन देखने को मिलता रहता है। घर की दहलीज से बाहर निकली महिला को पुरुषों की किस दृष्टि और व्यवहार का सामना करना पड़ता है, यह किसी से छिपा नहीं है। आखिर उसे ऐसा व्यवहार क्यों झेलना पड़ता है? पुरुषों के भीतर महिलाओं के प्रति ऐसे दृष्टिकोण का विकास किन सांस्कृतिक मूल्यों के तहत होता है? दूसरी ओर, विश्व भर में भारतीय संस्कृति के महत्त्व का बखान किया जाता है। आज स्थिति यह है कि कई विश्वविद्यालयों में भारतीय संस्कृति को पाठ्यक्रम के रूप में पढ़ाया जा रहा है और उसी देश में महिलाओं के साथ ऐसा किया बर्ताव किया जाता है।
एक अन्य खबर भी देखने और पढ़ने को मिली थी कि एक विदेशी विमान में एक नवजात जब रोने लगा तो विमान की परिचारिका यानी एयर होस्टेस ने बच्चे को स्तनपान करवा कर उसे शांत किया। जबकि वह बच्चा उस एयर होस्टेस का नहीं था। इन खबरों से यही लगता है कि विदेशी संस्कृति भारतीय संस्कृति का अनुसरण कर रही है और भारतीय संस्कृति अपने अंतिम पड़ाव की ओर चल रही है। अगर भारतीय संस्कृति को बचाना है तो समाज की जिन बातों का हवाला देकर महानता का गुण गाया जाता है, उसे लोगों के व्यवहार में उतारा जाए।
यह कोई गलत बात नहीं है कि पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने से हम अपनी संस्कृति और संस्कार से विमुख होने लगेंगे और यहां तक कि भूल जाएंगे। विदेशों में लोग अपनी सदियों पुरानी संस्कृति का अनुुसरण कर रहे हैं और अपने बीच पनपने वाली बुरी चीजों पर विचार करते हैं और उसका परिष्कार भी करने की कोशिश करते हैं। किसी भी संस्कृति की अच्छी बातों का अनुसरण करना बुरी बात नहीं है। लेकिन अपने बीच प्रचलित अमानवीय विचारों और व्यवहारों से बचना, उनसे लड़ना और उन्हें दूर करना अपनी संस्कृति को बेहतर बनाने के लिए जरूरी है। इसमें अगर स्त्रियों के प्रति सामाजिक व्यवहार में संवेदना और मानवीयता नहीं आ पाती है, तो उस संस्कृति को महान बताना या इस रूप में स्वीकार करना मुश्किल बना रहेगा।