हालांकि आज भौतिकता को प्राथमिकता देने वाली दुनिया में मानवीय रिश्ते रिसते जा रहे हैं, अपनत्व के घनत्व में क्षरण हो रहे हैं, फिर भी करुणा का यह अदृश्य भाव कभी न कभी मानव मन की परतों को शीतल स्पर्श दे ही देता है। खासतौर पर जब हम अपनी दुनिया से इतर जीवों की ओर देखते हैं तो वहां कुछ अलग ही बात नजर आती है, चिंता के नए पहलू देखने को मिलते हैं। यह छिपा नहीं है कि आसमान में उड़ती चिड़िया की दुनिया आज सिमटती और सिकुड़ती जा रही है और उसके आश्रय स्थल को हमारी अट्टालिकाओं ने छीन लिया है। बचपन के भोर में पक्षियों का चहचहाना एक तरह से हमारी सुबह की नींद को तोड़ने और उसको सुहाना बनाने का जरिया हुआ करता था, लेकिन समय के साथ यह दायित्व टेबल घड़ी के अलार्म में सीमित हो गया। फिर और आगे बढ़े तो आज यह ड्यूटी सिरहाने के अगल-बगल पड़े मोबाइल फोन के जिम्मे चली गई है।
मुझे याद है कि घर की मुंडेर पर सुबह की बेला में कई कौवे जब एक साथ कांव-कांव करते थे तो नींद में डूबे लोगों के लिए वह सुबह की सूचक होती थी। इसके अलावा, कौवों के सामूहिक स्वर को किसी अतिथि के आगमन की पूर्व सूचना भी माना जाता था। घर के सदस्यों के बीच आपस में यह चर्चा होने लगती थी कि किस सगे-संबंधी को पधारे कितने दिन हो गए हैं। चूंकि परंपरागत रूप से इस संकेत को प्रामाणिक माना जाता रहा था। कई बार गोधूलि बेला तक किसी न किसी मेहमान या अतिथि का आगमन द्वार पर हो जाया करता था। इसलिए इस मान्यता को और मजबूती मिल जाती थी।
एक मार्मिक घटना मेरे जीवन की यात्रा की पगडंडियों से ऐसे जुड़ गई मानो सब कुछ पूर्व निर्धारित तरीके से घटित हुआ हो। बिटिया की 2013 में जब शादी बाद विदाई हुई तो उसके पंद्रह दिन पहले कमरे की बालकनी में पंडुक नाम के एक पक्षी ने अपना घोंसला बनाया था। कुछ ही दिन बाद हुए उनके चूजों को देखते तो हम संवेदना के सागर में गोते लगाने लगते। ऐसा लगने लगा था कि यह संयोग भले ही क्षणिक हुआ हो, लेकिन मानस पटल पर एक अविस्मरणीय चित्र के रूप में मन में स्थित हो रहा था। कुछ दिनों बाद पंडुक का चूजा बड़ा हुआ और थोड़ा-थोड़ा उड़ने और फुदकने लगा। उसे देख कर हम लोगों की आंखों को असीम सुख मिलता और उसकी एक अलग ही छाप अंकित हो गई।
लेकिन यह सुख हमारे हिस्से शायद ज्यादा दिनों के लिए नहीं था। कुछ दिन बाद पंडुक अपने बच्चों सहित किसी अज्ञात स्थल की ओर चली गई। पहले की तरह फिर कबूतरों का आना-जाना लगा रहा, घोंसले बनते रहे, उनके बच्चे होते रहे। लेकिन पंडुक और उसके चूजों की जो छवि मन और आंखों में ठहर गई थी, उससे मुक्ति पाना मुश्किल हो रहा था। हालांकि उसके बाद अब रात में सोने के पहले बालकनी में कबूतरों के लिए चावल और कौवे के लिए रोज एक रोटी रख देना क्रम बन गया है। एक दिन मैंने प्रयोग किया कि सेब खाने के समय फल के कुछ ऐसे हिस्से जो खाने योग्य नहीं हैं, उसके बचे हुए भाग को छोटे टुकड़ों में करके बालकनी की छाया वाली जगह में एक बर्तन में रखने पर चिड़ियों के झुंड अपने आहार के रूप में रोज चट कर जाते हैं। कच्ची सब्जी के कुछ टुकड़ों का प्रयोग भी सफल रहा।
पटना से बाहर रहने पर यह क्रम जब बाधित होता है तो मन में एक टीस होती है यह सोच कर कि जिन चिड़ियों से मेरा रोजाना का संबंध बन गया है, जिन्हें कुछ खिलाने की दैनंदिनी हो गई है, उसे हम लोगों की अनुपस्थिति में कौन देता होगा, वे कैसे होंगे, क्या खाए होंगे! खासकर जब हम लोग भोजन कर रहे होते हैं तो उन पंछियों की यादों में पलकें नम हो जाती हैं। फिर जब लौटता हूं तो चावल की मात्रा में वृद्धि कर उसे बालकनी में रख देता हूं। पंछियों का झुंड बेहद खुश भाव से आकर हमारे सोए हुए मनोभावों को नए क्षितिज से हमें जोड़ते हुए संबंधों की चेतना से लैस कर फिर से तरंगित करने लगता है।
आज की भागमभाग से भरी जिंदगी की करवटों ने हमें बेहिसाब भौतिक आवश्यकताओं के पुंज के रूप में खड़ा कर दिया है, लेकिन अगर हम विचार करें कि ऐसे प्रकृति-प्रिय जीव, जिनका न कोई बैंक खाता है, न कल के अनाज का भंडारण और न कोई स्थायी विश्राम स्थल है, उनके लिए अपने हिस्से से बिना विशेष कटौती के अन्न के कुछ दाने, पानी की कुछ बूंदें और घर के बाहरी कोने में उसके आश्रय के लिए कुछ इंच की जगह मुहैया करा दी जाए तो हमारी यह संवेदना जीवन पथ पर एक नया आयाम रच सकती है।