चंद्रकुमार

यह दूरदराज के किसी गांव की घटना नहीं, बल्कि जयपुर की खबर के मुताबिक एक हृदय विदारक घटना में एक महिला ने अपनी दो माह की पोती को पानी की टंकी में डुबो कर महज अपनी इस इच्छा के लिए मार डाला कि घर में पहला बच्चा पोता हो। खबरों के मुताबिक उस महिला ने पुलिस के सामने अपना अपराध स्वीकार भी किया। स्तब्ध कर देने वाली यह घटना दरअसल आज के दौर में हमारे व्यापक समाज की दुखद हकीकत है। हमारे अंदर की कुंठाएं जब-तब उजागर होती हैं, उसकी परिणति वीभत्स रूप में सामने आती है।
रूढ़िवादी हो या अभिजात वर्ग, इस तरह की बेमानी चाहतों ने न जाने कितनी बच्चियों की जान ली है। दुखद यह है कि समाज में फौरी चिंता से ज्यादा कुछ भी नहीं होता और फिर कोई ऐसी ही कोई जघन्य घटना हमारे सामने उजागर होती है। हमारी आत्मा हमें अब झकझोरती नहीं है। यह मान लेने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि हमने अब शायद असंवेदनशील कृत्यों को बर्दाश्त करना सीख लिया है। इसलिए हम पर इसका कोई स्थायी असर नहीं पड़ता। इसी वजह से ऐसी कुत्सित मानसिकता गहरे तक पैठ गई है। कई विकसित देशों में मां के गर्भ में ही भ्रूण का लिंग पता कर बच्चे के आगमन की तैयारियां की जाती हैं। नवजात लड़का होगा या लड़की- इसके हिसाब से परिवार खुद को तैयार करता है और सुविधाएं जुटाता है। बच्चे का नाम तक पहले तय कर लिया जाता है। क्या हम अपने समाज में ऐसा सोच सकते हैं?

कोई अचरज नहीं कि हमारे देश में बच्चे के जन्म से पहले लिंग-पहचान एक आपराधिक कृत्य है। ऐसा इसलिए कि गैरबराबरी वाले लिंगभेदी समाज में बेटियों को बोझ समझने वाले लोग कन्याओं की भ्रूणहत्या तक कर देते हैं। अगर बच्ची जन्म ले ले तो कई बार उसे भी मार डाला जाता है। यह आम नहीं है, लेकिन ऐसी घटनाएं अक्सर उजागर होती रहती हैं।
नैसर्गिक रूप से एक महिला निषेचन के समय अपने गर्भ में लड़की या लड़का- दोनों के लिए समान अवसर प्रदान करती है। लेकिन पुरुष के शुक्राणु से यह तय होता है कि भ्रूण लड़का होगा या लड़की। इस लिहाज से पुरुष ही बच्चे के लड़का या लड़की होने के लिए जिम्मेदार है। फिर महिला को क्यों भुगतना पड़ता है? दरअसल, हमारा समाज आधुनिक और वैज्ञानिक सोच से सरोकार ही नहीं रखता, क्योंकि यह सोच उनकी मान्यताओं से मेल नहीं खाती है। वे मान्यताएं जो हमें अपनी कमजोरियों को ढके रहने देने में सहायक हैं, उन्हें क्यों कोई त्याग देना चाहेगा! परिणाम फिर चाहे जो हो- हमारी सहूलियत बनी रहे, हमारे लिए यही काफी है।

हम सब अपने आसपास देख सकते हैं कि भ्रूण से किसी तरह बच कर निकली बेटी क्या समाज में सुरक्षित है? बेटियां हमारे घर-समाज, स्कूल-कॉलेज, सार्वजनिक स्थल और यहां तक कि अपने कार्यस्थलों पर जितनी जिल्लत और असुरक्षा की भावना से घिरी हैं, वह चिंताजनक होने के साथ ही निंदनीय है। हमारी बच्चियों के साथ घटित दुर्व्यवहार को उनके पहनावे, आचरण, उन्मुक्त व्यवहार और खुलेपन की मंशा को दोषी करार देकर हम अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ लेते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि वहशी समाज अपनी कुंठाएं पाले उन्हें नोचने-खरोंचने को हमेशा तैयार बैठा रहता है। दरअसल, मर्यादा की शिक्षा बेटियों से ज्यादा बेटों को चाहिए, ताकि वे सुसंगत व्यवहार करना सीखे और यह भी समझे कि महिला भी समाज में उसी उन्मुक्तता से जी सकती है, जो वे खुद के लिए चाहते हैं। बच्चियों के यौन-शोषण के अधिकतर मामलों में दोषी उन्हीं के घर-परिवार, रिश्तेदार या पारिवारिक जानकारों में से ही होते हैं। यानी सुरक्षित वह अपने घर मे भी नहीं है। तो महिलाओं के लिए सुरक्षित समाज की कल्पना क्या महज एक सपना है?

झूठी इज्जत के नाम पर हत्या के जितने मामले आजकल सामने आ रहे हैं, क्या उससे यह अंदाजा लगाया जाए कि हम आधुनिकता के बजाय जड़ता की तरफ बढ़ रहे हैं? पश्चिम के मनचाहे अनुसरण मे कहीं हम उस मूल विचार की अवहेलना तो नहीं कर रहे, जिसके अनुसार किसी उन्नत समाज के निर्माण में स्त्री-पुरुष की बराबर भागीदारी होनी चाहिए? यह बराबरी का अधिकार हम दे नहीं रहे, महिलाएं उसकी हकदार हैं। कानूनन कोई भी महिला, जैसे परिवार की संपत्ति में बराबर की हकदार है, वैसे ही समाज में भी वह बराबरी का हक रखती है।

पुरुषों ने महिलाओं के अधिकारों का हनन किया है- हमें इसे कुछ इस तरह से देखना होगा। तभी पुरुष वर्ग मौजूदा व्यवस्था को बदलने के लिए खुद को तैयार कर पाएगा। जब तक पुरुष अहं से छुटकारा नहीं हासिल करेगा, तब तक वह खुद को अधिपति मान कर महिलाओं के हक पर कुंडली मारे बैठा रहेगा। ऐसा समाज हमारी आधी आबादी के लिए बिल्कुल महफूज नहीं होगा। महिलाओं को बराबरी का हक ही हमारी सामाजिक कुरीतियों और रूढ़िवादी सोच को मिटाने में सहायक होगा, नहीं तो न जाने कितनी बच्चियां इस कुत्सित सोच के चलते डुबो कर मारी जाती रहेंगी।