कालू राम शर्मा
कुछ समय पहले एक उच्च पद पर बैठे व्यक्ति के साथ पढ़ाई-लिखाई के परिदृश्य पर बातचीत हो रही थी। शिक्षा की पहुंच का संदर्भ आने पर उन्होंने कहा कि आदिवासी और निचली कही जाने वाली जातियों के लोग अपने बच्चों की ओर ध्यान नहीं देते। बच्चों को स्कूल जाना है या नहीं, इसकी चिंता उन्हें नहीं होती। वे लोग जरा भी ध्यान नहीं देते। वे एक सांस में ये बातें कह गए। अक्सर सार्वजनिक स्कूल, जहां सर्वसाधारण के बच्चे अध्ययन करते हैं, के संदर्भ में इस तरह की बातें हमें सुनने को मिलती हैं। मगर क्या किसी ने इन बातों को सचमुच जांचने की कोशिश की है कि वंचित स्थिति के शिकार कमजोर तबकों के परिवार अपनी संतानों का खयाल नहीं रखते? क्या अपने बच्चों के प्रति वे संवेदनशील नहीं होते? राजनेता या अधिकारी लोग जब स्कूलों का दौरा करते हैं, तो इन बच्चों के अभिभावकों से कितना मिलते-जुलते हैं। बल्कि असल में वे उन वंचित बच्चों से मिलते भी हैं तो महज उन्हें सतही तौर पर देख कर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। उन्हें लगता है कि ये बच्चे ढीठ और उद्दंड होते हैं। सच यह है कि वंचित बच्चों के साथ काम करने वाले स्कूलों के शिक्षकों के प्रति हमारे तंत्र का रुख सकारात्मक नहीं है।
मैं लंबे अरसे से स्कूलों में जाकर टटोलने की कोशिश करता रहा हूं कि क्या वाकई यह सही है कि कमजोर तबके के लोग अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की अनदेखी करते हैं। मैंने ऐसे अनेक बच्चों के अभिभावकों से बातचीत की और समझने की कोशिश की। यह सच है कि वंचित समुदाय के लोगों की स्थिति नाजुक होती है। अभिभावक मजदूरी करते हैं, सुबह घर से निकल कर शाम को घर पहुंचते है। घरों में अगर कोई वृद्ध है तो उनके भरोसे ये बच्चे होते हैं। लेकिन कई वृद्धों की हालत इतनी दयनीय होती है कि वे अपने आपको ही नहीं संभाल पाते तो वे बच्चों को कैसे संभालेंगे! स्कूल जाने लायक बड़े बच्चे, दूध पीते शिशुओं को संभालते हैं। ये बच्चे न केवल अपने आपको संभालते हैं, बल्कि मवेशियों का भी खयाल रखते हैं।
जब मैं गुजरात के आदिवासी इलाके में स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहा था, तब इन बच्चों और अभिभावकों को अधिक नजदीक से समझा।
खासतौर पर आश्रमशालाओं के बच्चों के साथ काफी करीबी से और लंबा वक्त बिताया। जब राखी, दिवाली, होली, मकर संक्रांति या ग्रीष्मकाल की छुट्टियां होतीं तो कुछ बच्चे अपने घर जाने में दिलचस्पी दिखाते। ऐसे ही कुछ बच्चों से जब मैंने बातचीत की तो कई सारी बातें सामने आर्इं। पता चला कि उन बच्चों को आश्रमशालाओं में दो वक्त का भोजन मिल जाता है जबकि घरों में वह भी मुश्किल से नसीब होता। कुछ बच्चों ने बताया कि उनकी मां का देहांत हो चुका है। पिताजी कहीं मजदूरी करते हैं और आखिर वे कैसे खयाल रख सकते हैं! वे घर जाकर क्या करेंगे! अक्सर आवासीय स्कूलों में पढ़ रहे ऊंचे तबके के बच्चे छुट्टियों में घर जाने को तरसते हैं, मगर वहां मैंने इसका उलट पाया।
विडंबना यह है कि वंचित समाज के बच्चों में स्कूल और उनके जीवन में एक प्रकार की टकराहट है। कथित मुख्यधारा के समाज के बच्चों के जीवन में स्कूल ही प्राथमिकता होती है, उनके पास और कोई जिम्मेदारी नहीं होती। वहीं वंचित समाज के बच्चों के लिए घर के काम एक अहम जिम्मेदारी होती है, जिसमें शामिल है पशुओं को चराना, छोटे भाई-बहनों को संभालना, खेतों-घरों में काम करना आदि। ऐसा इसलिए कि वंचित परिवारों की आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि में मुख्यधारा से काफी फर्क होता है। उनका रहन-सहन, पहनावा, भाषा आदि अलग होती है।
दरअसल, इसी फर्क के आधार पर हम उन्हें मुख्यधारा के बच्चों से अलग कर और मान लेते हैं और उसी आधार पर उन बच्चों और अभिभावकों से वंचितों की तुलना कर बैठते हैं। अभाव से जूझते और समर्थ परिवारों और उनके बच्चों की तुलना उचित नहीं है। वंचित समुदाय के बच्चों से होमवर्क करने और उसमें अभिभावकों से मदद की अपेक्षा करना बेमानी ही कहा जाएगा। जब मैं गिजु भाई की किताब ‘दिवास्वप्न’ को पढ़ता हूं तो वे अभिभावकों से यह उम्मीद नहीं करते कि वे बच्चों को घर पर पढ़ाएं। आखिर अभिभावकों से हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं? अभिभावक तो चाहते हैं कि उनके बच्चे पढ़े-लिखें। फिर स्कूलों की भूमिका का क्या होगा? होमवर्क की उम्मीद माता-पिता से करना वैसे भी कितना सही है, इस पर शैक्षिक जगत को विचार करने की जरूरत है।
गिजू भाई ने ‘दिवास्वप्न’ में बताया है कि बच्चे उनके स्कूल में बिना नहाए आते थे। क्या सचमुच आदिवासी लोग या कम पढ़े-लिखे लोग अपनी संतान का खयाल नहीं रखते? मेरा अनुभव बताता है कि जिन लोगों की बात की जा रही है उनकी वंचना और उसकी वजहों के अनुमान से हम कोसों दूर हैं। हम अपने समकक्ष परिवारों से उन परिवारों की तुलना करने लगते हैं जिन्हें रोज सुबह मजदूरी या काम पर जाना होता है, ताकि उनके घर में चूल्हा जल सके।