कई साल बाद पिछले हफ्ते एक नजदीकी रिश्तेदार के घर गया, जहां भरा-पूरा पारिवारिक माहौल था। घर से निकलते समय रास्ते में हमने आपस में राय-विचार कर तय किया कि कुछ मिठाई ले ली जाए, क्योंकि एक तो संबंधी करीबी हैं और दूसरे, वहां बच्चे भी हैं। खाली हाथ जाना उचित नहीं होगा। इसलिए एक अच्छी दुकान से हमने मिठाई ली, उसे अच्छे से पैक कराया और रिश्तेदार के घर गए। सामान्य शिष्टाचार और अभिवादन की औपचारिकता के बाद मिठाई के डिब्बे को मुस्कान के साथ वाली मुद्रा में पत्नी ने घर की बहूरानी के हाथ में सौंप दिया। उधर से तुरंत कहा गया कि ओह ये मिठाई आप लोग क्यों लाए… इसकी जरूरत नहीं थी। आप लोग आए, यही काफी है। वैसे भी आजकल बच्चे मिठाई खाना तो दूर, छूते भी नहीं हैं। आप लोगों को पता ही होगा कि आजकल बच्चों का ‘टेस्ट’ कितना बदल गया है!’

इस कथन से थोड़ी असहजता का भाव लिए हम लोग स्वागत कक्ष में बैठ गए। रिश्तेदार के घर जाने से पहले हम जिस जोश-खरोश से भरे हुए थे, अब वहां एक अल्प अपराध बोध मन से संधि कर बैठा। जिस मनोयोग और उल्लास के साथ हमने मिठाई खरीदी थी, उसकी मिठास एक अजीब चिंतन की तरंग के रूप में स्वागत कक्ष के कोने में खोने पर विवश हो गया। बहरहाल, कुशल-क्षेम पूछने और अन्य मसलों पर बातचीत के साथ-साथ अल्पाहार और चाय आदि की औपचारिकता के बाद हम लोग घर की ओर लौटे।

उस दिन घर लौटते समय मानस पटल पर अंकित बचपन की कुछ धुंधली स्मृतियां सहज रूप से तरल होकर जीवंत हो उठीं। यादों ने मन को झकझोरते हुए बताया कि बाल्यकाल में जब हमें किसी अतिथि के घर आने की सूचना होती थी तो मिठाई खाने की ललक और प्रतीक्षा हमें कितना बेसब्र कर दिया करती थी! घर के मुख्य दरवाजे पर किसी के आने की आहट से लगता था कि वे आ गए। अतिथि के आगमन तक मन में स्वत:स्फूर्त हार्दिक हलचल रोमांचकारी हुआ करती थी। आखिरकार अतिथि महोदय के आगमन के बाद उनके लाए संदेश की पोटली या डिब्बे पर परोक्ष ध्यान तब तक केंद्रित रहता था, जब तक अपने हिस्से का अंश हमें मिल न जाए। इसके बाद जब इसके मिल जाने पर जो खुशी और उमंग की रिमझिम बारिश हृदय स्थल में होती थी, उसे आज भी ज्यों का त्यों बयान करना संभव नहीं लगता।

आज बदली हुई परिस्थितियों ने जब सभी सामाजिक और मानवीय परंपराओं और विकल्पों को क्षरण के पथ का पथिक बना दिया है तो मेहमानबाजी या आतिथ्य भाव की रुग्णता भी एक कसक बन कर हमें चिढ़ा रही है। अतिथि के आगमन का पहला संकेत लोग तब मान लेते थे, जब सुबह-सुबह घर के छप्पर पर बैठे कौवे कांव-कांव करने लगते थे। कई बार कौवों के बोलने के बाद गोधूलि बेला तक मेहमान के आने का खयाल सही सिद्ध हो जाता था। उनके आगमन पर घर के सभी सदस्यों में एक आत्मीय उत्साह का सात्विक स्पंदन होता था। उनके आदर-सत्कार में कोई कमी नहीं करने का संकल्प बहुत ही स्नेहिल उदाहरण माना जाता था। घर में किसी चीज की कमी की पूर्ति आस-पड़ोस के घर से हो जाती थी।

यह बताना उचित होगा कि घर आई नई नवेली दुल्हन के पिता, चाचा, भाई के आगमन पर गले लग कर या पैर पकड़ कर रोने के भाव-स्वर से अपनत्व के घनत्व में दो परिवारों के मिलन के महत्त्व की ऊंचाई मापी जाती थी। आगंतुक के पीतल-कांसे की थाली में पैर पखारने का विधि-विधान संबंध की समरसता और आपसी संवेदना की सरिता के प्रवाह को और शीतल किया करता था। हालांकि अतिथि दो-चार पहर या एक-दो दिनों में लौट जाते थे, लेकिन उनके ठहराव के पल एक चिर-स्मरणीय छाप छोड़ जाते थे। आस-पड़ोस के लोग अतिथि से मिलने और गपियाने में कोई कसर नहीं रखते थे।

किसी दुखद घटना में संबंधियों का आना और हिम्मत बंधाते हुए आवश्यक संसाधन से सहयोग करने का भरोसा देना शोक काल में एक सहारे का मंत्र सिद्ध होता था। घर आए अतिथि को घरेलू व्यंजन परोस कर उनकी संतुष्टि का खयाल रखा जाना महत्त्वपूर्ण था। लेकिन आज बदली हुई परिस्थितियों में रेडीमेड व्यंजनों की भरमार ने हर किसी को अतिथि से ‘गेस्ट’ बना दिया है। इस तरह हम कह सकते हैं कि हमारे पूर्वजों में अधिकतर भले ही डिग्रीविहीन थे, लेकिन मूल्यों और भाव-संवेदना के मामले में अति विद्वान थे। उन्होंने आतिथ्य भाव के गौरव और गरिमा को कभी सर्वोच्च स्थान दिया था जो आज भटकाव की दिशा की ओर अग्रसर है। परिवार का विखंडन, स्वार्थ की ललक, भौतिक व्यामोह, आत्मकेंद्रित होना आदि कुछ ऐसी व्याधियां हैं, जिन्होंने हमारे उज्ज्वल और प्रेरक व्यवहारों को हमसे दूर कर दिया है और हम ‘अतिथि कब जाओगे’ जैसे लकीर के फकीर बन गए हैं। काश, सुबह के भूले हम शाम को घर लौट जाते!