हेमंत कुमार पारीक
महाभारत कथा में एक प्रसंग आता है, जिसमें भगवान कृष्ण से अर्जुन ने पूछा कि दुनिया में स्थायी क्या है? तब कृष्ण ने जवाब दिया- ‘परिवर्तन ही स्थायी है।’ कायदे से देखें तो हर क्षण कुछ न कुछ परिवर्तन होता रहता है। आज जो है, कल वह नहीं होगा। सुबह-शाम रोज दिखने में एक जैसे जरूर लगते हैं, लेकिन एक जैसे हो नहीं सकते, मगर कई सुबहें या शामें अपनी छाप छोड़ जाते हैं। वही याद बन जाती है। अपनी पुरानी यादों को कुरेदता हूं तो बचपन के वे दिन आंखों के आगे घूमने लगते हैं। चारों तरफ सब कुछ बंद होने के इन दिनों उन यादों के सहारे कितना सुख मिल रहा है। ऐसे समय में जब पाबंदियों के चलते घर से बाहर नहीं निकल पा रहा, घर के सामने खड़े आम और इमली के पेड़ नजर आ रहे हैं। आम पर तोतों का झुंड काबिज हैं। गिलहरी अपनी आकर्षक अदा में छोटे-छोटे हाथों से कच्चे अमरूद को कुतर-कुतर कर खा रही है। ठीक आम इंसान की तरह। मुझे अपने बचपन की याद आती है। हमउम्र बच्चों के साथ राह चलते पत्थर से किस तरह इमली तोड़ा करता था।
कुछ दिन पहले इधर बच्चे क्रिकेट का बल्ला और गेंद लिए मैदान में जा रहे थे। सार्वजनिक मैदान था। कुछ बच्चे फुटबॉल लिए हुए थे तो कुछ के हाथ में बैडमिंटन खेलने के रैकिट थे। आम और इमली से सरोकार होते हुए भी उन्हें सरोकार नहीं दिख रहे थे। तेज गति से चलती हवा में कैरियां पटापट गिर रही थीं, पर उन्हें देख कर भी वे अनदेखा कर रहे थे। गिरी पड़ी इमलियों पर एक नजर डालते हुए बालमन तो कहता होगा कि एक-दो उठा लें… एकाध पत्थर फेंका जाए, पर इधर-उधर देखते हुए वे आगे बढ़ जाते थे। मैं उन्हें देख रहा था छज्जे से। मन करता है कि नीचे जाकर कैरी और इमली बीन लाऊं। पर उम्र और इससे उपजी झिझक आड़े आ जाती है। सोचता हूं कि मुझे इमली और कैरियां बीनते देख कर लोग क्या सोचेंगे।
उन्हीं बच्चों में अपनी कल्पना करने लगा। उस वक्त गांव में एक बालमंदिर था। वहां खेल का एक बड़ा मैदान भी था। बड़ी उम्र के नौजवान वहां वॉलीबॉल खेला करते थे और हम बच्चे लोग एक तरफ खड़े-खड़े उन्हें टुकुर-टुकुर ताका करते थे। पर उस उम्र के हमारे खेल अलग थे। जैसे कि ‘सितोलिया’। इसमें रबर की एक गेंद से काम चल जाता था, जिसे आपस में चंदा कर खरीद लाते थे और सात समतल पत्थर के टुकड़ों को एक के ऊपर रख कर खेल शुरू करते थे। दूसरा खेल था ‘आइस-पाइस’, जिसे लुका-छिपी कह सकते हैं। उसके लिए शाम का समय उपयुक्त होता था। और इन सबमें ‘गिल्ली-डंडा’ ज्यादा लोकप्रिय था। इसे हम क्रिकेट का जनक कह सकते हैं। इस खेल में कई घंटे आसानी से गुजर जाते थे। इसलिए हम इसे रविवार या छुट्टी के दिनों में खेला करते थे।
जब मेरी उम्र पंद्रह-सोलह वर्ष की हुई, तब मैं ‘गुलाम डंडे’ के खेल में शामिल होने लगा था। इसमें बच्चों की टोली में से एक को दाम (चांस) देना होता था। गोल घेरे में रखी डंडी को दूर फेंका जाता था। जब तक वह लड़का डंडी उठा कर गोल घेरे में रखता, तब तक टोली के सारे लड़के पेड़ पर चढ़ जाते। फिर वह (जिस पर दाम होता था) पेड़ पर चढ़े लड़कों को छूने की कोशिश करता फिरता। इस दौरान अगर कोई पेड़ से कूद कर डंडी को छू लेता तो उसे दोबारा दाम देना पड़ता। इस खेल में ताकत, दृढ़ता, फुर्ती, बंदर जैसी कूद-फांद और जोखिम होता था।
जब उच्च विद्यालय में पहुंचा तो साइकिल चलाने का भूत सवार हुआ। दादा की साइकिल थी। उसे चलाना कठिन काम था। संतुलन बनाने के लिए एक हाथ से हैंडिल और दूसरे हाथ से सीट को पकड़ना जरूरी होता था। इसके बाद फ्रेम से होते हुए दूसरे पैडिल तक पैर पहुंचना होता था। इसे ‘कैंची’ कहते थे। यह अवस्था कैंची जैसी मुद्रा होती थी। कह सकते हैं कि वह एक कठिन स्टंट की तरह था। ठीक से साइकिल चलाने के लिए अनगिनत बार गिरा होऊंगा। मगर यह उपलब्धि एक अलौकिक अनुभव था। फिर भी साइकिल के नियंत्रण में काफी वक्त लगा।
याद आता है कि तैराकी सीखने के लिए डालडा के खाली डिब्बे को पीठ पर बांध कर नदी में तैरने का आनंद कैसे उठाता था। आज के बच्चे तैराकी सीखने ‘स्वीमिंग पूल’ जाते हैं। मेरा बेटा भी। लेकिन मुझमें इतना साहस नहीं है कि तैराकी के लिए उसे बिना प्रशिक्षक अकेले भेजूं। पर मेरे लिए तो समय की घड़ी वहीं बंद हो गई लगती है। घड़ी के कांटे उसी प्रस्तर युग में ठहर गए हैं। कभी-कभी अपने घर के सामने खेल के मैदान की दीवार के बाहर खड़े उन साधनहीन बच्चों को देखता हूं तो लगता है साधन तो हैं, पर वह काल बीत चुका है। अब पिछले कुछ दिनों से ऐसा लगने लगा है कि समाज और जीवन का जो नया दायरा बन रहा है, उसमें आने वाली पीढ़ियां पुराने दौर के उन खेलों को छोड़ दें, आज के वैसे खेल नहीं खेल सकेंगी, जिसमें बच्चे समूह में खेलते हैं। इसी तारतम्य में मुझे पुराना गाना याद आता है- ‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन!’